________________
कुछ विद्वानोंका इस कृतिको देखकर यह अनुमान है कि जिस कृत्रिम शैलीमें समन्तभद्रने स्तुतिविद्याका प्रणयन किया है यह कृत्रिम शैली ई० सनकी चौथो शताब्दीसे विकसित होती है । अत: कृत्रिम शैलीके कारण यह कृति द्वितीय-तृतीय शतीकी रचना नहीं हो सकती। विचार करनेपर उक्त मत निन्ति प्रतीत नहीं होता, यतः कृत्रिम शैलीके विकासका मूल कारण आर्यभाषाके साथ द्रविड़ भाषाका सम्पर्क है। द्राविड़-परिवारको भाषाओंमें चित्र, श्लेष और चमकलो अधिक भपता है। बार- समन्तभद्रने दाक्षिणात्य होनेके कारण ही इस शैलीका प्रयोग किया है ।
इस स्तोत्रमें कुल ११६ पद्य हैं और अन्तिम पद्यमें "कविकाव्यनामगर्मचक्रवृत्तम" है। जिसके बाहरके षष्ट वलयमें 'शास्तिवर्मकृतम्' और चतुर्थवलय में 'जिनस्तुतिशतम्' की उपलब्धि होती है । उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपकका एक साथ प्रयोग काव्यकलाको दृष्टिसे श्लाघनीय है। यहां उदाहरणार्थ काव्यलिंगको प्रस्तुत किया जा रहा है
सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यर्चनं चापि ते हस्तावेजलये कथाश्रुतिरतः कर्णोऽक्षि संप्रेक्षते । सुस्तुत्यां व्यसनं शिरा नतिपरं सेवेद्वशी येन ते
तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृतो तेनैव तेजःपते' || जिनेन्द्र भगवानकी आराधना करनेवाले मनुष्यको आत्मा आत्मीय तेजसे जगमगा उठती है । वह सर्वोत्कृष्ट पुरुष गिना आने लगता है। तथा उसके महान पुण्यका बन्ध होता है। यहां स्मरण, पूजन, अञ्जलि-बन्धन, कपा-श्रवण, दर्शन आदिका क्रमशः नियोजन होनेसे परिसंख्या-अलंकार है । आचार्यने हेतु-वाक्योंका प्रयोग कर काव्यलिंगकी मी योजना की है। इस प्रकार यह स्तुति-विद्या स्तोत्र-काव्य और दर्शनगुणों से युक्त है | और है सविवेक भक्ति-रचना। ३. आतमीमांसा या देवागमस्तोत्र
स्तोत्रके रूपमें तर्क और आगमपरम्पराको कसोटीपर आम-सर्वदेवकी मीमांसा की गयी है। समन्तभद्र अन्धश्रद्धालु नहीं हैं, वे श्रद्धाको तर्ककी कसोटीपर कसकर युक्ति-आगमद्वारा बाप्तकी विवेचना करते हैं। आप्तविषयक मूल्यांकनमें सर्वज्ञाभाववादी मीमांसक, भावकान्तवादी सांस्य, १. स्तुतिविद्या, पद्य ११५ । २, आचार्य जुगलकिशोर मुस्तार द्वारा सम्पादित वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन
वाराणसी।
श्रुतघर और सारस्वप्ताधार्य : १८९