________________
इन रूपकोंने भावोंको सहज ग्राह्य तो बनाया ही है, साथ ही चन्द्रप्रभ भगवान के गुणोंका प्रभाव भी दिखलाया है। भव्यकुमुदनियोंको विकसित करने के लिए चन्द्रप्रभ चन्द्रमा हैं।
उपमा
पद्मप्रभः पद्यपलाश-लेश्यः पनालयालिङ्गितचारुमूत्तिः ।
बभी भवान् भव्य-पयोरुहाणां पद्माकराणामिव पनबन्धुः ।। पद्मपत्रके समान द्रव्यलेश्याके धारक हैं पद्मप्रभाजन आपको सुन्दरमत्ति पद्मालय-लक्ष्मीसे आलिङ्गित रही है और आप भव्यकमलोंको विकसित करने के लिए उसी तरह भासमान हुए हैं, जिसप्रकार सूर्य कमलसमूहका विकास करता हुआ सुशोभित होता है।
संक्षेपमें स्तोत्रकाव्यमें एकान्ततत्वकी समीक्षापूर्वक स्याद्वादनयसे अनेकान्तामृततस्वकी स्थापना की गयी है। २. स्तुतिविधा
जिनशतक और जिनशतकालंकार भी इसके नाम आये हैं। इसमें चित्रकाव्य और बन्धरचनाका अपूर्व कौशल समाहित है। शतककाव्योंमें इसकी गणना की गयी है । सौ पद्योमें किसी एक विषयसे सम्बद्ध रचना लिखना असाधारण बात मानी जातो थो । प्रस्तुत जिनशतकमें चौबीस तीर्थंकरोंकी चित्रबन्धोंमें स्तुति की गयी है। भावपक्ष और कलापक्ष दोनों नैतिक एवं धार्मिक उपदेशके उपस्कारक बनकर आये हैं | समन्तभद्रकी काव्यकला इस स्तोत्रमें आयन्त व्याप्त है । मुरजादि चक्रबन्धको रचनाके कारण चित्र काव्यका उत्कर्ष इस स्तोत्रकाव्य में पूर्णतया वर्तमान है।
समन्तभद्र की इस कृतिसे स्पष्ट है कि चित्रकाव्यका विकास माघोत्तरकालमें नहीं हुआ, बल्कि भाष करिसे कई सौ वर्ष पूर्व हो चका है। चित्र, श्लेष और यमकका समावेश बाल्मीकि रामायण में भी पाया जाता है, अतः यह सम्भव है कि दाक्षिणत्य भाषाओंके विशिष्ट सम्पकके कारण समन्तभद्रने चित्र-श्लेष और यमकका पर्याप्त विकास कर उक्त काव्यको रचना की। इस कृतिमें मुरजबन्ध, अर्धभ्रम, गतप्रत्यागतार्ष, चक्रबन्ध, अनुलोम, प्रतिलोम क्रम एवं सर्वतोभद्र आदि चित्रोंका प्रयोग आया है | एकाक्षर पचोंको सुन्दरता कलाको दृष्टिसे अत्यन्त प्रशंसनीय है। १. पद्मप्रभजनस्तवन, पद १ । २. अनुवादक पण्डित पन्नालालली साहित्माचार्य, प्रकाशक, वीरसेवामन्दिर, दिल्ली । १८८ : तीर्थकर महावोर और उनकी बाचार्य परम्परा