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स्तोत्रसाहित्यका निर्माता वहीं सफल माना जाता है, जो स्तोत्रोके मध्य में प्रबन्धात्मक बीमा योजना करता है। पहला . तो बनते ही हैं, साथ ही उनमें प्रेषणीयता विशेष उत्पन्न होती है। समन्तभदाचायने वैदिक मन्त्रोंके समान ही प्रबन्धभित स्तोत्रोंका प्रणयनकर दार्शनिक और काव्यात्मक क्षेत्रमें नये परणचिन्ह उपस्थित किये हैं।
वंशस्थ, इन्द्रवजा, उपेन्द्रवजा, उपजाति, वसन्ततिलका, रथोखता, पथ्यावक्त्र-अनुष्टुप, सुभद्रिका-मालप्तीमिश्रित, वानवासिका, वेतासीय, शिखरिणी, उद्गता एवं आर्यागीति इन तेरह प्रकारके छन्दोंका प्रयोग पाया जाता है। अलंकार-योजनाकी दृष्टिसे उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अर्यान्सरन्यास, उदाहरण, दृष्टान्त एवं अन्योक्ति प्रभृति अलंकार उल्लेख्य हैं । अतिशयोक्तिका निम्न उदाहरण ध्यातव्य है
. तव रूपस्य सौन्दर्य दृष्टवा तृप्ति मनापिवान् ।
द्वपक्षः शक्रः सहस्राक्षो वभूव बहु-विस्मयः ।। यहाँ भगवान्के सौन्दर्यको दो नेत्रोंसे देखने में अतृप्तिका अनुभव करते हुए इन्द्रने सहस्र नेत्र धारणकर भगवान्के रूप-सौन्दर्यका अवलोकन कर आश्चर्य प्राप्त किया है। इस सन्दभमें अतिशयोकि हैं । उदाहरणालंकार
सुखाभिलाषाऽनलदाहमूच्छित्तं मनो निजं मानमयाऽमृताम्बुभिः ।
व्यविध्यपस्त्वं विषदाहमोहितं यथा भिषग्मन्त्रगुणैः स्वविग्रहम् ।। जिसप्रकार वैद्य विषदाहसे मूच्छित हुए अपने शरीरको विषापहारमन्त्रके गुणोंसे उसकी अमोघशक्तियोंसे निविष एवं मूर्छा रहित कर देता है, उसीप्रकार हे शोत्तलजिन ! आपने सांसारिक सुखोंको अभिलाषारूप अग्निके दाहसे मूष्ठित हुए अपने आत्माको मानमय अमसके सिञ्चनसे मूच्छारहित-शान्त किया है । रूपकालंकार
स चन्द्रमा भव्यकुमुद्धतीनां विपन्नदोषाधकलकुलेपः ।
व्याकोश-याङ-न्याय-मयूलमाल: पूयात्पवित्रो भगवम्मनो मे ।। यहाँ-'भव्यकुमुदतोना' और 'दोषान-कला-लेपः'में रूपककी योजना है।
१. स्वयम्भू स्तोत्र, अरविनस्तव, पम ४ । २. वही, शीतलजिनस्तवन पद्य २ । ३. बहो, चन्द्रप्रमजिन, १५ ५ ।
श्रुतपर मौर सारस्वताचार्य : १८७