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इसप्रकार महावीरके तीर्थंको ही समस्त विपत्तियोंका अन्त करनेवाला सर्वोदय तीर्थ कहा है ।
५. रत्नकरण्डभावकाचार – जीवन और आचारको व्याख्या इस ग्रन्थ में की गयी है । १५० पद्मों में विस्तारपूर्वक सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्रका विवेचन करते हुए कुन्दकुन्दकेर निर्देशानुसार सल्लेखनाको श्रावकके व्रतोंमें स्थान दिया है। अन्तमें श्रावककी एकादश प्रतिमाएं वर्णित हैं । डाँ० वासुदेवशरण अग्रवालने समीचीन धर्मशास्त्र - रत्नकरण्ड श्रावकाareकी भूमिका में लिखा है---"स्वामी समन्तभद्रने अपनी विश्वलोकोपकारिणी वाणी से न केवल जैनमार्गको सब ओरसे कल्याणकारी बनानेका प्रयत्न किया है। {जैनं वत्मं समन्तभद्रमभवद्भद्र ं समन्तात् मुहुः) किन्तु शुद्धमानवी दृष्टिसे भी उन्होंने मनुष्यको नैतिक बरातलपर प्रतिष्ठित करनेके लिए बुद्धिवादी दृष्टिकोण अपनाया । उनके इस दृष्टिकोण में मानव मात्रको रुचि हो सकती है । समन्तभद्रकी दृष्टिमें मनकी साधना हृदयका परिवर्तन सच्ची साधना है । बाह्य आचार तो बम्बरोंसे भरे भी हो सकते हैं। जेना है कि मोदी मुनिसे निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है ( कारिका-३३ ) | किसीने चाहे चाण्डाल योनिमें भी शरीर धारण किया हो, किन्तु यदि उसमें सम्यक् दर्शनका उदय हो गया है तो देवता ऐसे व्यक्तिको देव समान ही मानते हैं। ऐसा व्यक्ति भस्मसे ढंके हुए किन्तु अन्तर में दहकते हुए अंगारे की तरह होता है ।"
इस ग्रन्थकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है१. श्रावकके अष्टमूलगुणोंका विवेचन
२. महत्पूजनका वैयावृत्यके अन्तर्गत स्थान ३. व्रतोंमें प्रसिद्धि पानेवालोंके नामोल्लेख
४. मोही मुनिको अपेक्षा निर्मोही धावककी श्रेष्ठता
५. सम्यक दर्शन सम्पन्न मातंगको देवतुल्य कहकर उदार दृष्टिकोणका
उपन्यास |
६. कुन्दकुन्द और उमास्वामीको श्रावक धर्म सम्बन्धी मान्यताओंोंको आत्मसात्कर स्वतन्त्र रूपमें श्रावकधर्मसम्बन्धी ग्रन्थका प्रणयन
१. इस सन्दके अनेक संस्करण प्रकाशित है । बीर सेवा मन्दिर, दिल्ली से प्रकाशित संस्करण अध्ययनीय है ।
२. कुन्दकुन्दका चारित्रमाहुर गावा २५-२६ ।
३. समीचीन धर्मशास्त्र, भीर सेवा मन्दिर दिल्ली
प्राक्कथन, पु० १६
घर और सारस्वताचार्य : १९१