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इस कृतिमें कति का जपन्तद्रमा मन नहीं भी उपलब्ध नहीं है । टीकाकार प्रभाचन्द्रने इसे समन्तभद्रकृत लिखा है। अत: डॉ० हीरालाल जैन आप्तमीमांसामें निरूपित आप्तके लक्षणको शैलीको अपेक्षा इसकी शैलीमें मित्रता प्राप्तकर और पाचनाथचरितकी उत्थानिकामें योगोन्द्रकी रचनाके निर्देशको पाकर इसे योगीन्द्रदेवकी रचना मानते हैं। ग्रन्थके उपान्त्य श्लोकमें 'बीतकला', विद्या' और 'सर्वार्थसिद्धि' शब्दोंको तत्तद् आचार्य और ग्रन्योंका सूचक मानकर आठवींग्यारहवीं शतीके मध्यको रचना इसे स्वीकार करते हैं।'
अतः डॉ जैनके मतानुसार यह कृति आप्तमीमांमाके रचयिता स्वामी समन्तभद्रकी नहीं है। भले ही कोई दूसरा समन्तभद्र इसका रचयिता रहा हो। डॉ. साहबने उक्त मन्तव्यको प्रकट करने के लिए एक निबन्ध बनेकान्त, वर्ष ८, किरण १-३, पृ. २६-३३, ८६–२० और १२५-१३२ में लिखा था, त्रिसका प्रतिवाद डॉ. प्रो. दरवारोलाल कोठियाने अनेकान्त वर्ष ८ किरण ४-५ में किया है। डॉ० कोठियाने डॉ. जैनके तर्कोका उत्तर देते हुए प्रस्तुत कृतिको बाचार्य समन्तभद्रकी ही रचना सिद्ध किया है। मैं इस विवादमें न पड़कर इतना अवश्य कहंगा कि समन्तभद्र के अन्य ग्रन्थोंके समान इस ग्रन्यके मो दो नाम उपलब्ध हैं.-१. समोचोन धर्मशास्त्र और २. वर्ण्य विषयके अनुसार रलकरण्डकश्रावकाचार। स्वामी समन्तभद्रकी यह शेली है कि वे अपने प्रत्येक प्रन्धके दो नाम रखते हैं--प्रथम नामका निर्देश प्रथम पद्यक प्रारम्भिक वाक्यमें कर देते हैं और दूसरेका निर्देश ग्रन्थके वर्ण्य विषयके आधारपर रहता है।
यह निर्विवाद सत्य है कि इस ग्रन्थमें प्रतिपादित विषय बहुत प्राचीन है। श्रुतधर कुन्दकुन्दके चारित्रपाहुड, प्रवचनसार, दर्शनपाहुड, सोलपाहुद आदिसे विषयको सूत्ररूपमें ग्रहणकर नये रूपमें श्रावकाचारसम्बन्धी सिद्धान्तोंका प्रणयन किया है। अत: विद्वानोंके मध्य मूलगुणसम्बन्धी जो प्रश्न उठाया जाता है उसका समाधान यहाँ सम्भव है। जब समन्तभद्रने श्रावकाचारका प्रणयन नये रूपमें किया, तो उन्होंने बहुत-सो ऐसी बातोंको भी इस ग्रन्यमें स्थान दिया, जो पहलेसे प्रचलित नहीं थीं। हमारा तो दढ़ मत है कि तृयोय मध्यायकी यह ६६ वीं कारिका प्रक्षिप्त है। पीछेके किसी विद्वान्ने प्रतिलिपि करते समय अहिंसाणुव्रतके विशुद्धयर्थ इस कारिकाको जोड़ दिया है। यहाँसे इसे हटा देनेपर भी ग्रन्थके वर्ण्य विषयमें किसीप्रकारकी कमी नहीं आती। यह कारिका एक प्रकारसे विषयका पुनरुक्तीकरण ही करती है । मद्य, मांस, म. १. मारतीय संस्कृतिमें जनधर्मका योगवाम, पृ० ११३ । १९२ : तीर्थकर महावीर और उनकी बारार्य-परम्परा