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किया है । 'मान' दो प्रकारका है-लोक और लोकोत्तर । लौकिक 'मान के छह भेद हैं-१. मान २. जन्मान ३. अवमान ४. गणिमान ५. प्रतिमान और ६. ततप्रतिमान । गणनाके मलतः तीन भेद हैं-१. संख्यात २. असंख्यात और ३. अनन्त । संख्यातका एक ही भेद है, और असंख्यातके तीन भेद हैं-१. परीतासंख्यात २. युक्तासंख्यात और ३. संख्यासासंख्यात । अनन्तके भी तीन भेद हैं-परीतानन्त, युक्तामन्त और अनन्तान्त । इस प्रकार उपमाप्रमाण' या गणनाके ३+३+ १ =७ भेद हैं और इन सातोंके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीनतीन भेद होते हैं । इस प्रकार ७४३ =२१ भेद हए । असंख्यात ज्ञानके निमित्त अनवस्था, शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका इन चार, कुण्डोंको कल्पना की गयी है । इन कुण्डोंका व्यास एक लक्ष योजन प्रमाण और उत्सेध एक सहस्र योजन प्रमाण है। कुण्ड गोलाकार होते हैं। इन कुण्डोंमें दो आदिक सरसोंसे भरना अनवस्था कुण्ड है ।
इस सन्दर्भमें गणना और संख्याको पारभाषा भी बतायी गयी है। लिखा है
एयादीया गणणा बीयादीया हवंति संस्बेज्जा।
सोयादीणं णियमा कदित्ति सण्णा मुणेदव्वा' । अर्थात् एकादिकको गणना, दो आदिकको संख्या एवं सीन आदिकको कृति कहते हैं। एक और दोमें कृतित्व नहीं है। यतः जिस संस्याके वर्ग से वर्गमूलको घटानेपर जो शेष रहे उसका वर्ग करनेपर उस संख्यासे अधिक राशिकी उपलब्धि हो, वही कृति है। यह कृतिधर्म तीन आदिक संख्याओंमें हो पाया जाता है। एकके संख्यात्वका भी निषेध आचार्य नेमिचन्द्रने किया है, क्योंकि एककी गिनती गणनासंख्यामें नहीं होती। कारण स्पष्ट है । एक घटको देखकर, यहाँ घट है, इसकी प्रतीति तो होती है, पर उसकी तादादके विषयमें कुछ ज्ञान नहीं होता। अथवा दान, समर्पणादि कालमें एक वस्तुको प्रायः गिनती नहीं की जाती। इसका कारण असम व्यवहार, सम्भवव्यवहारका अभाव अथवा गिननेसे अल्पत्वका बोध होना है।
उपर्युक्त वक्तव्यका परीक्षण करनेपर ज्ञात होता है कि संख्या 'समूह'को जानकारी प्राप्त करनेके हेतु होती है। मनुष्यको उसके विकासको प्रारम्भिक अवस्थासे ही इस प्रकारका आन्तरिक ज्ञान प्राप्त होता है, जिसे हम सम्बोधनके १. त्रिलोकसार, प्रथमाषिकार, गाथा १६ ॥ ४२८ : तीकर महावीर और चमकी आचार्य-परम्परा