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नहीं हुई है। हरिषेण, श्रीचन्द्र और ब्रह्मनेमिदत्तके कयाकोषोंमें बताया गया है कि कार्तिकेयने कुमारावस्थामें ही मुनि-दीक्षा धारण की थी । इनकी बहनका विवाह रोहेड नगरके राजा क्रौञ्चके साथ हुआ था और उन्होंने दारुण उपसर्ग सहन कर स्वर्गलोकको प्राप्त किया । ये अग्निनामक राजाके पुत्र थे। ___ 'तस्वार्थवातिकमें अनुत्तरोपपाददशांगके वर्णन-प्रसंगमें दारुण उपसर्ग सहन करनेवालोंमें कार्तिकेयका भी नाम बाया है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि कार्तिकेय नामके कोई उन तपस्यो हुए हैं। ग्रन्थके अन्तमें जो प्रशस्तिमायाएं दी गयो हैं वे निम्न प्रकार हैं
जिणवयणभावपट्ठ, सामिकुमारेण परमसद्धाए। रइया अणुवेहाथो, चंचलमणरंभषटुं च ।। वारसअणुवेक्खागो, भणिया हु विणागमारणुसारेण । जो पढइ सुणइ भावइ, सो पावइ सासयं सोक्खं । तिहयणपहाणसामि, कुमारकालेण तवियतवयरणं ।
वसुपुज्जसुयं मॉल्ल, चरमत्तिय सथुवे णिच्वं ॥ यह अनुप्रेक्षानामक ग्रन्थ स्वामी कुमारने श्रद्धापूर्वक जिनवचनको प्रभावना तथा चंचल मनका रोकनेके लिए बनाया।
ये बारह अनुप्रेक्षाएं जिनागमके अनुसार कहा है, जो भव्य जीव इनको पढ़ता, सुनता और भावना करता है, वह शाश्वत सुख प्राप्त करता है । यह भावनारूप कत्तंव्य अर्थका उपदेशक है। अतः भव्य जोवोंको इन्हें पढ़ना, सुनना और इनका चिंतन करना चाहिए। __ कुमार-कालमें दीक्षा ग्रहण करनेवाले वासुपूजिन, मालाजन, नेमिनाथजिन, पाश्चनाधजिन एवं वर्धपान इन पाँचों बाल-पातियोंका में सदेव स्तवन करता हूँ।
इन प्रशस्ति-गाथाओंसे निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं१. वारस अनुप्रेक्षाके रचयिता स्वामी कुमार हैं ।
२. ये स्वामी कुमार बालबह्मचारी थे। इसो कारण इन्होंने अन्त्य मंगलके रूपमें पांच बालतियोंको नमस्कार किया है।
३. चञ्चल मन एवं विषय-वासनाओंके विरोधकेलिए ये अनुप्रेक्षाएं लिखी गई हैं। १. तत्वार्षवार्तिक । २. वारस अमुवेबसा, गाया न. ४८७, ४६८, ४८९ । १३४ : तोषकर महावीर बौर उनको बाचार्य-परम्परा