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दिये हैं, चरित नहीं । अतएव प्राकृतमें चरित-काव्य के रचयिताके रूपमें आचार्य विमलसूरिका स्थान सबसे आगे है । 'कुवलयमाला' में इनके 'पउमचरिय का उल्लेख होनेसे विदित होता है कि विमलसूरिका 'पउमचरिय' वि० सं० ८३५ के लगभग पर्याप्त प्रसिद्धि पा चुका था ।
जीवन-परिचय
विमलसूरिने ग्रन्यान्त में अपनी प्रशस्ति अंकित की है। इस प्रशस्तिके अनुसार ये आचार्य राहु के प्रशिष्य, विजयके शिष्य और 'नाइल कुल' के वंशज थे । नाइल कुलके सम्बन्ध में मुनि कल्याणविजयजीका अनुमान है कि नाइल कुल नागिल कुल अथवा नगेन्द्र कुल है। इसका अस्तित्व १२वीं शताब्दी तक प्राप्त होता है । १२वींसे १५वीं शताब्दी तक यह नगेन्द्र गच्छके नामसे प्रसिद्ध रहा है । इस गच्छके आचार्य एकान्तः संप्रदायका अनुकरण नहीं करते थे । इनके विचार उदार रहते थे ।
यही कारण है कि विद्वानोंने इन्हें यापनीय संघका अनुयायी माना है । लिखा है कि विमलसूरिकी दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंके प्रति उदारताका मुख्य कारण उनका यापनीय संघका अनुयायी होना है। श्री बी० एम० कुलruffa निष्कर्ष निकाला है कि आचार्य विमलसूरि यापनीय संघके थे ।
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यापनीय संघका साहित्य पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होता है। यह सम्प्रदाय दर्शनसारके कर्त्ता देवसेन सुरिके अनुसार वि० सं० २०५ में स्थापित प्रतीत होता है। कदम्ब, राष्ट्रकूट और दूसरे वंशके राजाओंने इस संघको भूमि इत्यादि दान में दी है । श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरिने भी अपने ललितविस्तर ग्रंथ में पापनीय तन्त्रका सम्मान पूर्वक उल्लेख किया है । यापनीय संघका अस्तित्व विक्रमी १५वीं शताब्दी तक प्राप्त होता है । कागबाड़ेके अभिलेखसे यापनीय संघके धर्मकीर्ति और नागचन्द्रके समाधि ले लेनेका उल्लेख गया है । अतः बहुत सम्भव है कि विक्रमको १५वीं - १६वीं शताब्दी के पश्चात् इस संघका लोप हुआ होगा । वेलगांवके दोडवस्ती अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि यापनियों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा दिगम्बरों द्वारा पूजी जाती थी । अतः यह माना जा सकता है कि यापनीय सघके आचार्य दिगम्बरों में प्रतिष्ठित या मान्य थे |
१. कुवलयमाला, अनुच्छेद ६, पृ० ४ ।
२. पउमचरियं प्रथम भाग, सम्पादक, डॉ० हर्मन जेकोवी, इन्ट्रोडक्शन, पू० १५ । ३ वही, पृ० १८ ।
४. कल्लाणे वरणगरे दुष्णिसए पंजउत्तरे जाये ।
जायणिय संघभावो सिरिकलसादो हु सेवडदो दर्शनसार, गाया २९ ।
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : १५५