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अर्थात् विद्वानोंको सभामें जिनका नाम कह देने मात्रसे सभीका गवं दूर हो जाता है, वे यशोभद्र स्वामी हमारी रक्षा करें।
जैनेन्द्र व्याकरणमें "क्व वृषिमृजओ यशोभद्रस्य" (२२११९०) सूत्र आया है । अतः जिनसेनके द्वारा उल्लिखित यशोभद्र और देवनन्दिके जैनेन्द्र व्याकरणमें निर्दिष्ट यशोभद्र यदि एक ही हैं, सो इनका समय वि० सं० छठी शतीके पूर्व होना चाहिये।
आचार्य शान्त अथवा शान्तिषण आचार्य शान्त अथवा शान्तिषेषका साहित्यमें सविशेष उल्लेख है। इनकी उत्प्रेक्षालकारसे युक्त वक्रोक्तियोंकी प्रशंसा की गयी है। बताया है
शान्तस्यापि च वक्रोक्ती रम्योस्प्रेक्षा बलान्मनः ।
कस्य नोद्घाटितेऽन्यर्थे रमणीयेऽनुरजयेत् ॥ अर्थात् श्री शान्त कविकी वक्रोक्तिरूप रचना रमणीय उत्प्रेक्षाओंके बलसे मनोहर अर्थके प्रकट होनेपर किसके मनको अनुरक्त नहीं करती है।
जिनसेनने अपनी गुरुपरम्पराका वर्णन करते हुए जयसेनके पूर्व एक शान्तिषेण आचार्यका नामोल्लेख किया है । यदि ये शान्त ही शान्तिषण हों, तो जिनसेनकी गुरुपरम्परामें नाम आने के कारण इनका समय ७वीं शताब्दी होना चाहिये। हरिवंशपुराणके अन्तमें दी हुई प्रशस्तिमें विनयन्धर, गुप्तश्रुति, गुप्तऋषि, मुनीश्वर, शिवगुप्त, अर्हद्वलि, मन्दराय, मित्रविरवि, वलदेव, मित्रक, सिंहबल, वीरवित, पयसेन, व्याघहस्त, नागहस्ति, जितदण्ड, नन्दिषेण, दीपसेन, श्रीधरसेन, सुवर्मसेन, सिंहसेन, सुनन्दिषेण, ईश्वरसेन, सुनन्दिषेण, अभयसेन, सिद्धसेन, अभयसेन, भीमसेन, जिनसेन और शान्तिर्षण आचार्य हुए । अनन्तर जयसेन, अमितसेन, कीतिसेन और जिनसेन हुए हैं । स्पष्ट है कि शास्तिषेण अच्छे कवि और दार्शनिक थे।
विशेषवादि हरिवंशपुराणके उल्लेखोंसे अवगत होता है कि इनको कोई गद्य-पद्यमय रचना रही है। वादिराजने भी अपने पार्श्वनाथचरितमें विशेषवादिका उल्लेख किया है । जिनसेनने लिखा है१. हरिवंशपुराण, ज्ञानपीठ संस्करण. इलोक ११३६ । २. वहीं, ६६, २५-३३ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ४५१