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योऽशेषोक्तिविशेषेषु विशेषः पचाद्ययोः । विशेषवादिता तस्य विशेषत्रयवादिनः ' ॥
अर्थात् जो गद्य-पद्य सम्बन्धी समस्त विशिष्ट उक्तियोंके विषय में विशेष अर्थात् तिलकरूप है, तथा जो विशेषत्रयका निरूपण करनेवाले हैं, ऐसे विशेषवादि कविका विशेषादिपता सर्वत्र प्रसिद्ध है । विशेषवादि कविका विशेषत्रय कोई ग्रन्थ रहा है, या गद्य, पद्य और गद्य-पद्य तीनों प्रकारकी रचनायें दक्ष होनेसे विशेषत्रयवादी कहा जान पड़ता है।
श्रीपाल
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ये वीरसेन स्वाभीके शिष्य और जिनसेनके सधर्मा समकालीन विद्वान हैं। जिनसेनने जयधबलाको इनके द्वारा सम्पादित बताया है । इनका समय वि० सं०मी ९ वीं
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काणभिक्षु
आचार्य जिनसेनने काणभिक्षुका कथाग्रन्थ रचयिता के रूपमें उल्लेख किया है। इससे ज्ञात होता है कि उनका कोई प्रथमानुयोगसम्बन्धी कोई ग्रन्थ रहा है। जिनसेनने लिखा है
धर्मसूत्रानुगा हुया यस्य वाङ्मणयोऽमलाः । कथालङ्कारतां भेजुः काणभिक्षुजंयत्यसो' ||
अर्थात् वे काणभिक्षु जयवन्त हों, जिनके धर्मरूप सूत्र में पिरोये हुए, मनोहर वचनरूप निर्मलमणि कथाशास्त्र के अलङ्कारपनेको प्राप्त हुए थे । अर्थात् जिनके द्वारा रचे गये कथाग्रन्थ श्रेष्ठ हैं ।
ये जिनसेन द्वारा उल्लिखित होनेसे उनके पूर्ववर्ती विद्वान् हैं।
कनकनन्दि
सिद्धान्त ग्रन्थोंके रचयिता के रूपमें कनकनन्दिका नाम भी नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीक समान समादरणीय है । इन्हें भी सिद्धान्त - चक्रवर्ती कहा गया हैं । यह तथ्य गोम्मटसार कर्मकाण्डको निम्न अन्तिम गाथासे स्पष्ट होता है-
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१. हरिवंश० १३७ ।
२. आदिपुराण, ११५३ |
३. आदिपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, भाग १, पद्य ११५१ ।
४५२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा