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बात ही क्या । जो पुरुष नारीका परित्याग कर देता है, वह बड़ वृक्षोंसे मी हीन है, विवेक-शून्य है।
कारणमालालङ्कारकी योजना करते हुए ज्ञानका महत्त्व प्रदर्शित किया है
शानं विना नास्त्यहितान्निवृत्तिस्ततः प्रवृत्तिनं हिते जनानाम् ।
ततो न पूर्वाजितकर्मनाशस्ततो न सौख्यं लभतेऽप्यभीष्टम् ॥ अर्थात् ज्ञानके बिना मनुष्यको अहितसे निवृत्ति नहीं होती है और अहितको निवृत्ति न होनेसे हितकार्य में प्रवृत्ति नहीं होती। हितकार्यमें प्रवृत्ति न होनेसे पूर्वोपार्जित कर्मोंका नाश नहीं होता और पूर्वोपार्जित कर्मके नाश न होनेसे अभीष्ट मोक्ष-सुख नहीं मिलता। कषायका सदभाव ही चरित्रका असद्भाव है । कषायको जितने रूपमें कमी होने लगती है उतने ही रूप में चरित्रका विकास होने लगता है । कविने संसार, कषाय और चरित्र इन तीनोंको व्याख्या बड़े ही सुन्दर रूपमें की है। शोकाभिभूत व्यक्तिको अवस्थाका चित्रण करता हुवा कवि कहता है
वितनोति वच: करुणं विमना विधनौति करौ च रणौ च भूशाम् । रमते न गृहे न वने न जने
पुरुष: कुरुते न किमत्र शुचार शोकके कारण व्यक्ति निमनस्क हो जाता है, दोन वचन बोलता है, हाथ-पैरोंको पटकता है और घर-बाहर स्वजनों एवं परिजनोंके बीच कहीं भी शान्तिलाभ प्राप्त नहीं करता । शोकके कारण मनुष्यको स्थिति बहुत विचित्र हो जाती है । कवि द्वारा अङ्कित चित्र बहुत ही सजीव है। अतएव संसारको यथार्थ स्थितिका चित्रण करता हुआ कवि कहता है
स्वजनोऽन्यजनः कुरुते न सुखं न धनं न वृषो विषयो न भवेत् । विमतेः स्वहितस्य शुचा भविनः स्तुतिमस्य न कोषिकरोति बुधः ।।
शोकसे विह्वलचित्त पुरुष स्वहितसे वंचित रहता है । अत: वह न तो स्वजनोंसे सुख प्राप्त करता है और न परिजनोंके सम्बन्धसे हो आनन्दित होता
१. सुभाषि०, पद्य १९८ । २. वही, पद्य ७१३ । ३. वही, पद्य ७१६ ।
३९२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आधार्य-परम्परा