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कारक इन विषयभोगोंकी सज्जनोंने पहले निन्दा की थी, वह निन्दा, निन्दा नहीं है, यथार्थ है।
उक्त पद्यमें हाथोंके कांपनेपर कवि द्वारा की गयी कल्पना सहृदयोंको अपनी ओर आकृष्ट करती है । उक्ति-वैचित्र्य भी यहाँ निहित है।
मदिराको उपमा देकर वृद्धावस्थाका जीवन्त चित्रण किया है। यह उपमा श्लेषमूलक है। विशेषण जरा और मदिरा दोनों पक्षोंमें समानरूपसेघटित होते हैं । यथा
चलयति तनुं दालेप्रति कशि शरीरे;
रचयति बलादव्यक्तीक्ति तनोति गतिक्षितिम् । जनयति जनेनुधां निन्दामनर्थपरम्परा
हरति सुरभिगन्धं देहाज्जरा मदिरा यथा' ।। जिस प्रकार मदिरा-पान शरीरको अस्त-व्यस्त कर देता है, आँखें घूमने लगती हैं, महसे अस्फुट वचन निकलते हैं, चलने में बाधा होती है, लोगों में निन्दाका पात्र बन जाता है एवं शरीरसे दुर्गन्धि निकलती है---उसी प्रकार वृद्धावस्था शरीरको कंपा देतो है, नेत्रोंकी ज्योति घट जाती है, दांत टूट जानेसे मुंहसे अस्फुट ध्वनि निकलती है, चलने में कष्ट होता है, शरोरसे दुर्गन्धि निकलती और नाना प्रकारको अवहेलना होनेसे निन्दा होती है । इस प्रकार कविने मदिरापानको स्थितिसे वृद्धावस्थाकी तुलना की है।
इस सुभाषित काव्यमें नारीकी सर्वत्र प्रशंसा की गयी है। कवि नारीको श्रेष्ठरत्तका रूपक देकर उसके गुणोंका उद्घाटन करता हुआ कहता हैयत्कामाति धुनीते सुखमुपचिनुते प्रीतिमाविष्करोति
सत्पात्राहारदानप्रभववरवृषस्यास्तदोषस्य हेतुः । वंशाभ्युद्धारकर्तुभवति तनुभुवः कारणं कान्तकीति
स्तत्सर्वाभीष्टदात्री प्रक्दत न कथं प्राय॑ते स्त्रीसुरत्नम् ॥ अर्थात् स्त्री वासना शान्त करती है, परम सुख देती है, अपना प्रेम प्रकट करती है, सत्पात्रको आहारदान देने में सहायता करती है, वंशोद्धार करनेवाले पुत्रको जन्म देती है। नारी-श्रेष्ठ-रत्न समस्त मनोरथोंको पूर्ण करने में समर्थ है । कचि कहता है कि स्वल्पज्ञानी बकुल और अशोक वृक्ष जब नारीका सम्मान करते हैं उसके सानिध्यसे प्रसन्न हो जाते हैं, तब मनुष्यकी १. सुभाषिक, पच २७१ । २. वहीं, पद्य १०९।
श्रुवघर और सारस्वताचार्य : ३९१