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७. चन्द्र-प्रज्ञप्ति ८. साद्धद्वयद्वीप-प्रज्ञप्ति
९. व्याख्या-प्रशप्ति १. सुभाषितरत्नसंवोह
सुभाषितरत्नसंदोह काव्यमें सुभाषितरूपी रत्नोंका भण्डार निबद्ध है। इसमें ९२२ पञ्च हैं । कविने सांसारिक लियनिराकर, गार गाहार. निराकरण, इन्द्रिय-निग्रहोपदेश, स्त्री-गुण-दोष, कोप-लोभ-निराकरण, सदसद्स्वरूपनिरूपण, ज्ञाननिरूपण, चारित्रनिरूपण, जातिनिरूपण, जरा-निरूपण, मृत्यु-सामान्यनित्यता-देव-जठर-जीव-सम्बोधन-दुर्जन-सज्जनदान-मद्यनिषेध-मांसनिषेध-मधुनिषेध - कामनिषेध - वेश्यासंग-चूत-आत्मस्वरूप गुरुस्वरूप-धर्म-शोक-शौच-श्रावकधर्म और द्वादविध तपश्चरण इस प्रकार बत्तीस विषयोंका प्रतिपादन किया है।
कविने अपने सुभाषितोंका उद्देश्य बतलाते हुए लिखा है-- जनयति मुदमन्तभव्यपाथोकहाणां, हरति तिमिरराशि या प्रभा मानवीव । कृसनिखिलपदार्थद्योतना भारतीद्धा वितरतु युतदोषा सोऽहंति भारती वः' ।
अर्थात् जिस प्रकार सूर्यको किरणें अन्धकारका नाश कर समस्त पदार्थोंको प्रकाशित करती हैं और कमलोंको विकसित करती हैं, उसी प्रकार ये सुभाषित घेतन-अचेतनविषयक अज्ञानको दूर कर भक्तोंके-सहृदयों के चित्तको प्रसन्न करते हैं।
कविने उत्प्रेक्षाद्वारा वृद्धावस्थाका कितना सजीव और साङ्गोपाङ्ग चित्रण किया है । काव्य कलाको दृष्टिसे यह चित्रण रमणीय हैप्रबलपवनापातध्वस्तप्रदीपशिस्त्रोपमै
रलमलनिचयैः कामोद्भूतैः सुखैविषसंनिभैः । समपरिचितैर्दुःखप्राप्तः सतामतिनिन्दितै--
रिति कृतमनाः शङ्क वृद्धः प्रकम्पयते करौ॥ अर्थात् वृद्धावस्थामें जो हाथ कांपते हैं, वे यह प्रकट करते हैं कि युवावस्थामें जो कामजन्य सुख भोगे थे वे विषतुल्य हानिकारक सिज्ञ हुए । आँधीके वेगसे शान्त की गयी दीपककी लौंके समान क्षण-विध्वंसी और अत्यन्त दुःख१. सुभाषितरत्नसंदोह, पद्य १ । २. वही, पद्य २७० ।
३९० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा