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विद्यानन्दने अपने 'सस्वार्थ श्लोकवात्तिक' और अष्टसहस्री' में उद्योतकर, वाक्यपदोपकार भर्तृहरि, वामारिल भट्ट, प्रभाकर, प्रशस्तपाद, व्योमशिवाचार्य, धर्मकीति, प्रज्ञाकर, मण्डनमिश्र और सुरेश्वरमिश्रके मतोंकी समीक्षा की है। है। इन दार्शनिक विद्वानोंका समय ई० सन् ७८८ के पहले ही है । अतः विद्यानन्दके समयकी पूर्ववर्ती सीमा ७८८ ई० है और उत्तर सीमा पार्श्वनाथचरित और न्यायविनिश्चयविवरण (प्रशस्ति श्लोक २i में विद्यानन्दका उल्लेख रहनेसे ई० सन् १०२५ है। इन दोनों समय-सीमाओंके बीच ही इनका स्थितिकाल है।
आचार्य विद्यानन्दने 'प्रशस्तपादभाष्य' पर लिखी गयी चार टीकाओं मेंसे व्योमशिवकी 'व्योमवती' टोकाके अतिरिक्त अन्य तीन टोकाओंमेंसे किसी भो टीकाकी समीक्षा नहीं की है। अतः स्पष्ट है कि श्रीधरको न्यायकन्दली (ई० सन् ९९१) और उदयनकी किरणावली (ई० सन् ९८४) के पूर्व विद्यानन्दका समय होना चाहिए। इस प्रकार इनकी उत्तर सीमा ई० सन् १०२५ से हटकर ई० सन् ९८४ हो जाती है।
'अष्टसहस्री' को अन्तिम प्रशस्तिमें बताया है कि कुमारसेनकी युक्तियोंके वर्धनार्थ ही यह रचना लिखी जा रही है । यथा
वीरसेनाख्यमोक्षगे चारगुणानध्यरत्नसिन्धुगिरिसततम् । सारतरात्मध्यानगे मारमदाम्भोदपवनगिरिगह्वरायितु ॥ कष्टसहस्री सिद्धा साष्टसहस्रीयमत्र मे पुष्यात् ।
शश्वदभीष्टसहस्री कुमारसेनोक्तिवर्धमानार्था ।। (ना) इससे ध्वनित होता है कि कुमारसेनने आप्तमीमांपर कोई विवृति या विवरण लिखा होगा, जिसका स्पष्टीकरण विद्यानन्दने किया है। निश्चयत: कुमारसेन इनके पूर्ववर्ती हैं। कुमारसेनका समय ई० सन् ७८३ के पूर्व माना गया है। जिनसेन प्रथमने अपने हरिवंशपुराणमें कुमारसेनका उल्लेख किया है
_ 'आकूपार यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्जवलम् ।
गुरोः कुमारसेनस्य विचरस्यजितात्मकम् ॥ और जिनसेनने अपने हरिवंशपुराणकी रचना ई० सन् ७८३में की है। यहाँ यह विचारणीय है कि जिनसेन प्रथमने कूमारसेनका तो स्मरण किया है, पर विद्यानन्दका नहीं। अतः इससे सिद्ध होता है कि हरिवंशपुराणको
१. अष्टसहस्री, निर्णयसार प्रेस, बम्बई, सन् १९१५, अन्तिम प्रशस्ति पृ० २९५ । १. हरिवंशपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, ११३८ पु० ५।
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : ३५१