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१. ये दोनों आचार्य सिद्धान्तके मर्मज्ञ थे। २. श्रुतसागरके पारगामी थे। ३. सूत्रों ख्याता :
४. गुप्ति, समिति और व्रतोंके पालनमें सावधान तथा परीषह और उपसर्गाके सहन करनेमें पटु थे।
५. वाचक और प्रभावक भी थे। समय-निर्णय
श्वेताम्बर पट्टालियों में से कल्पसूत्र-स्थविरावली और पट्टावली-सारोद्धारमें तो उक्त दोनों आचार्योका नाम नहीं मिलता है। अन्य पट्टावलियों में से किसोमें कंवल आर्यमंझुका नाम और किसोमें आर्यनाग हस्तिका नाम आता है । जहाँ इन दोनों आचार्यों के नाम हैं, वहाँ भी बीच में किसी अन्य प्राचार्यका नाम आ गया है।
यह तो निर्विवाद है कि पट्टायलियोंमें उल्लिखित आर्यमंक्षु और नागहस्ति ही धवला और जयधवलामें उल्लिखित आर्यमक्ष और नागहस्ति है। वि० सं० १३२७के लगभग धर्मघोषने 'सिरि-दुसमाकाल-समणसंघ-श्यं' नामक पट्टा पली संगृहीत की है, जिसमें' वइर' के पश्चात् ही नागथिका नाम आया है। यथा
बीए निवीस वइरं च नागहत्थि व रेवईमित्तं ।
सोहं नागझुणं भूइदिन्नियं कालयं वंदे ।।' ये वइर, वहर द्वितीय या कल्पसूत्र-पट्टावलीके उपकोसिय गोत्रीय वइरसेन हैं, जिनका समय इसो पट्टावलीको अवचूरोमें राजगणनासे तुलना करते हुए वीर नि० सं० ६१७के पश्चात् बतलाया गया है।
पुष्पमित्र (दुर्बलिका पुष्पमित्र २० ॥ तथा राजा नाइड: ॥१०॥ एवं ६०५ शावसंवत्सरः ।। अत्रान्तरे वोटिका निर्गता। इति ६१७॥ प्रथमोदयः । वायसरेण ३ नागहस्ति ६९ रेवतिमित्र ५९ बभदीवग सिंह ७८ नागार्जुन ७८ ।
पणसयरी सयाई तिन्नि-सय-समन्निआई अइकमळ ।
विक्कमकालाओ तओ बहुली (वलभी) भंगो समुप्पन्नो।। उक्त उद्धरणके अनुसार वीर नि० सं० के ६१७ वर्ष पश्चात् पइरसेनका काल तीन वर्ष और उनके अनन्तर नागहस्तिका काल ६९ वर्ष पाया जाता है। कल्पसूत्र-स्थविगवलीमें एक वइरको गौतम-गोत्री और दूसरेको उक्कोसी१. पट्टावलीसमुच्चय पृ० १६ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ७५