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यगोत्री कहा है और उन्हें परस्परमें गम्-शिरा बतलाया है। किन्त, कार पलेकी पदावलियों में उनके नामोके बीच एक दो नाम और जुड़े हुए मिलते हैं। प्रथम अज्जवइरके समयका उल्लेख वीर नि० सं० ५८४ वर्ष पाया जाता है। और द्वितीय अज्जवइरका वीर नि० सं० ६१७ पाया जाता है। इन दोनों आचार्योंसे पूर्व आर्यमंक्षुका उल्लेख है तथा इन दोनोंके अनन्तर नागहस्तिका निर्देश है । अतः इन चारों आचार्योका समय निम्न प्रकार हैआर्यमंक्ष
४६७ वी नि० आर्यवच्च- ४९६-५८४ ।। आर्य वनसेन- ६१७-६२० ।
आर्य नागहस्ति- ६२०.६८९ , दिगम्बर वाङ्मयके अनुसार उक्त दोनों आचार्य यतिवृषभके गुरु और गुणधरके शिष्य होनेके कारण गुणपराचार्यके समकालीन हैं।
मथुराके सरस्वती-आन्दोलनके सम्बन्धमें कहा जाता है कि मथुरा संघने पुस्तकधारिणी सरस्वती देवीको विशाल प्रतिमाएं प्रतिष्ठित को थीं। दूसरी शती ई. के पूर्वाद्ध में कुषाण नरेशोंके शासन-कालमें आचार्य नागहस्ति द्वारा प्रस्थापित सरस्वती देवोकी जो खण्डित मूर्ति मथुराके कंकाली टोलेसे प्राप्त हुई है वह सबसे अधिक प्राचीन है। यह सरस्वती-आन्दोलन अर्थात् ग्रन्थ लिखनेका आन्दोलन ई०पू०.५० से ई० सन् १०० तक रहा है। नागहस्ति या हस्त-हस्तिका नाम मथुराके शिलालेखमें आया है। अतः डा० ज्योतिप्रसादजोने नागहस्तिकी तिथि ई. सन् १३०-१३२ निर्धारित की है और आर्यमक्ष को नागहस्तिसे पूर्ववर्ती मानकर उनका समय ई० सन् ५० माना है।'
श्वेताम्बर पट्टावलियोंके आधारपर आर्यमा और नागहस्तिके समयमें १३० वर्षका अन्तर पड़ता है। अत: वे दोनों समकालीन नहीं है; पर दिगम्बर उल्लेखोंके अनुसार ये दोनों आचार्य महावीर स्वामीको परम्पराको २८ वी पोढ़ीपर आते हैं जिसका अर्थ है कि कोर नि० सं० सातवीं शताब्दी इनका समय है। श्वेताम्बर पट्टावलियोंके अनुसार आयमंक्षका काल वोर नि० सं० पाँचवीं शताब्दी और नागहस्तिका सातवीं शताब्दी है। धवला और जयधवलामें आर्यमा और नागहस्तिका उल्लेख जिस क्रमसे आया है उससे भी यह ध्वनित होता है कि आर्यमा नागहस्तिसे ज्येष्ठ थे । इसीलिए उनका नाम प्रथम रखा
1. Thc Taina Sources of The History of Ancient India P. 116. ७६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्म-परम्परा