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मुस्तार साहबके इस कथनसे स्पष्ट है कि सुलोचनाचरिउ १४ वीं शतीके किसी देवसेनका है । भावसंग्रह और दर्शनसार एक ही कर्ताकी रचनाएँ हैं।
श्री पं० परमानन्दजी का यह तर्क कि 'दर्शनशा नूरका ग्रन्थ है और 'भावसंग्रह' मूलसंघसे इतर संघका ग्रन्थ है, क्योंकि इसमें पञ्चामृत अभिषेक आदिको विधि प्रतिपादित की गयी है, अधिक सबल नहीं है, क्योंकि काष्ठासंध में, जो कि मूलसंघके समान ही मान्य था, पञ्चामृत अभिषेक आदिका विधान किया है।
श्री प्रेमीजीने दर्शनसारके अन्तर्गत आये हुए संघोकी समीक्षा करते हुए लिखा है कि दर्शनसारमें आये हुए चार संघोंमें यापनीयसंघको छोड़ शेष तीन संघका मूलसंघसे इतना पार्थक्य नहीं है कि वे जैनाभास बतला दिये जायें । दर्शनसार की रचना वि० सं० ९९० में की है। भावसंग्रह, आराधनासार और तत्त्वसार इनकी रचना दर्शनसारके बाद की गयी है | अतः हमारा अनुमान है कि दर्शनसार देवसेनकी सबसे पहली रचना है । इस रचना के समय में वे कट्टर मूलसंघी रहे होंगे। पर पाँच-दस वर्षके बीच उनके विचार और अधिक परिपक्व हुए तथा वे काष्ठासंघ आचार्योंके सम्पर्क में पहुँचे, जिससे उन्होंने प्रभावित होकर वि० सं० २००५ के लगभग भावसंग्रह लिखा ।
श्री मुख्तार साहब ने श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीके मतको उपस्थित करते हुए लिखा है - " इसके प्रारम्भिक अंश में अन्य ग्रंथोंके उद्धरणोंकी भरमार है, जो मूलग्रन्यकारके द्वारा उद्धृत नहीं हुए हैं और अनेक स्थानोंपर - खासकर पांचवें गुणस्थानके वर्णनमें - इसके पद्योंकी स्थिति रयणसार जैसी सन्दिग्ध पायी जाती है । अतः प्राचीन प्रतियोंकी खोज करके इसके मूलरूप को सुनिश्चित करनेकी खास जरूरत है"" |
एक और तर्क भी विचारणीय है कि प्राकृत भाषाके ग्रन्थोंकी रचनाके पश्चात् ही अपभ्रं शमें रचनाएं लिखी जाती हैं। कोई भी लेखक प्रथम प्राकृत और संस्कृत में रचना करता है, तत्पश्चात् अपभ्रंशमें। जो लेखक तीनों भाषाओं में ही रचनाओंका प्रणयन करते हैं, वे प्रथम प्राकृत अनन्तर संस्कृत और तत्पश्चात् अपभ्रंश में ग्रन्थ लिखते हैं। अतएव देवसेनने भी प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश रचनाओं का प्रणयन किया होगा । उनकी सरस्वती आराधनाका काल वि० [सं० ९९० ( ई० सन् ९३३) से वि० सं० १०१२ ( ई० सन् ९५५) तक है ।
१. पुरातन जैन वाक्य सूची, प्रस्तावना ५० ६१ १
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तर और सारस्वताचार्य : ३६९