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अपनश-भाषाके 'सुलोचनाचरिउ'के रचयिता देवसेन ही 'भावसंग्रह' के कर्ता हैं। इनके गुरुका नाम भी विमलसेनगणि है।
श्री प्रेमीजीने भी उनके इस मतको प्रायः स्वीकार करते हुए लिखा है"एक और प्राकृत ग्रन्थ 'भाव संग्रह' है, जो विमलगणिके शिष्य देवसेनका है । यह भी मुद्रित हो चुका है। इसमें कई जगह 'दर्शनसार'को अनेक गाथाएँ उद्धृत हैं। इसपरसे हमने अनुमान किया था कि 'दर्शनसार के कर्ता ही इसके कर्ता हैं, परन्तु परमानन्दजी शास्त्रीने (अनेकान्त वर्ष ७ अंक ११-१२में) इस पर सन्देह किया है और सुलोचनाचरिउके कर्ता तथा भावसंग्रहके कर्ताको एक बतलाया है, जो कि विमलगणिके शिष्य हैं।" _ 'सुलोचनाधरिउ में उसके रचना-कालका निर्देश करते हुए लिखा है कि संवत्सरकी श्रावण शुक्ला चतुर्दशीके दिन यह ग्रन्थ पूर्ण हुआ । पं० परमानन्दजोने ज्योतिष गणनाका प्रमाण देते हुए उक्त कालको विक्रम संवत् ११३२ तथा १६.२ में पड़ता हुषा शिखः है :
पता नहीं पं० परमानन्दजोने किस आधारपर यह ज्योतिष गणना को है । राक्षस-संवत्सर श्रावण शुक्ला चतुर्दशीको ग्रह-लाघवके गणित्तानुसार वि० सं० १०१२ में आता है। यों राक्षससंवत्सरकी स्थिति वि० सं०९५२,१०१२, १०७२, ११३२ और ११९२ में आती है, पर श्रावणशुक्ला चतुर्दशीको राक्षस संवत्सरका योग विक्रम सं० १०१२ के अतिरिक्क १३७२ में आता है। इसके बीचके संवत्सरोंमें बार्हस्पत्य गणनानुसार राक्षससंवत्सर और श्रावण शुक्ला चतुर्दशीको स्थिति एक साथ घटित नहीं होती है। अतः अनुमान है कि दर्शनसार, भावसंग्रह और सुलोचनाधरिउ इन तीनों गन्थोंका का एक देवसेन नहीं है । श्री जुगलकिशोर मुख्तारने श्री पं० परमानन्दजीको समालोचना करते हुए लिखा है- "अतः भावसंग्रहके कर्ता देवसेन उनसे पहले हुए, तब सुलोचनाचरितके कर्ता देवसेन और पाण्डवपुराणकी गुरुपरम्परावाले देवसेनके साथ उनकी एकता किसी भी तरह स्थापित नहीं की जा सकती और न उन्हें १२वीं १३वीं शताब्दीका विद्वान् ही ठहराया जा सकता है। इसलिए जब तक भिन्न कत्तु कताका द्योतक कोई दूसरा स्पष्ट प्रमाण सामने न आ जावे, तब तक दर्शनसार और भावसंग्रहको एक ही देवसेनकृत मानने में कोई खास बाधा मालूम नही होती" ।२ १. जैन साहित्य और इतिहास, द्वितीय संस्करण पृ०-१७६ २. पुरातनवाक्यसूचीकी प्रस्तावना, पृ० १६ । ३६८ : पीकर महावीर और उनकी वाचार्य-परम्परा