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धरसेनाचायको ज्ञात हुआ कि उनको मृत्यु निकट है। अतएव इन्हें उस कारण क्लेश न हो, इस लिए उन्होंने उन मुनियोंको तत्काल अपने पाससे विदा कर दिया।
"आत्मनो निकटमरण ज्ञात्वा धरसेन एतयोर्मा क्लेशो भवतु इति मत्या तन्मुनिविसर्जनं करिष्यति।"" ___संभव है कि भूतबाल और पुष्पदन्तके वहाँ रहनेसे आचार्यके ध्यान और तपमें विघ्न होता और विशेषतः उस स्थितिमें जबकि वे श्रुतरक्षाका अपना कर्तव्य पूरा कर चुके थे | आचार्य धरसेनकी यह इच्छा रही होगी कि उनके योग्य शिष्य यहाँसे जाकर श्रुतका प्रचार करें। जो भी हो, धवलामें आचार्य वीरसेनने परसेनका संक्षिप्त परिचय उक्त प्रकारसे प्रस्तुत किया है।
धवलाटीकासेर आनायं धरसेनके गुरुके नामका पता नहीं चलता । इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारमें लोहार्य तकको गुरुपरंपराक पश्चात् विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हद्दत्त इन चार आचार्योका उल्लेख आया है । ये सभी आचार्य अंगों और पूर्वोके एकदेशज्ञाता थे। तदनन्तर अर्हदबलिका उल्लेख आता है। ये बड़े भारी संघनायक थे और इन्होंने संघोंकी स्थापना की थी। अहंदुबलिके पश्चात् श्रुतावतारमें माघनन्दिका नाम आया है। इन माधनन्दिके पश्चात् ही घरसेनके नामका उल्लेख आया है । इस प्रकार श्रुतावतारमें अर्हद्बलि, माघनन्दि और धरसेन इन तीन आचार्यों का उल्लेख मिलता है । इन तीनोंका परस्परमें गुरुशिष्य सम्बन्ध था या नहीं, इसका निर्देश इन्द्रनन्दिने नहीं किया है।
नन्दिसंघको प्राकृतपट्टावलोसे यह अवगत होता है कि अर्हदलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि एक दूसरेके उत्तराधिकारी हैं। अतएव धरसेनके दादागुरु अर्हबलि और गुरु माघनन्दि संभव हैं। नन्दिसंघकी संस्कृत
१. सिता तसारादिसंग्रह, धूतावतार, ग्रन्थांक २१, पृष्ठ ३१६. २. तेण वि सोरट्ठ-विसय-गिरिणयर-पट्टण-चंदगुहा-ठिएण मटुंगा-महाणिमित्त
पारएण गंथ-वोच्छेदो होहदि त्ति जाद-भएण परयण-मच्छलेण दक्षिणावहाहरियाणं महिमाए मिलियागं लेहो पेसियो 'सुट्ट भई' ति भणिऊण घरसैग-भारएग दो वि आसासिदा । तवो चितिर्द भयवशा...."पुणो सदिवसे चेव पेसिदा संतो 'गुरुवपणभलंणिज्ज' हवि मिक्तिकणागदेहि अंकुलेसरे बरिसावासो को "
-षट्खण्डागम, प्रथम पुस्तक, पृ० ६७-७१. ४४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा