________________
वस्तुत: 'कम्मपयडि' एक संग्रह अन्य है क्योंकि उसमें विभिन्न स्थानोंपर आई हुई प्राचीन गाथाएं दृष्टिगोचर होती हैं । कम्मपडिकी चणिमें उसके कनि उसे 'कम्मपडिसंग्रहिणी' नाम दिया है । इसी प्रकार 'ससक' चूणिमें भी उसे संग्रह-ग्रन्थ कहा है । गुणधरकी यह रचना मौलिक है तथा कर्म-सिद्धान्तको बोजरूपमें प्रस्तुत करती है ।
कषायपाहुड कम्मपडिसे पूर्ववर्ती है । कम्मपर्याडके संक्रमकरणमें कषायपाहड़के संक्रमअर्थाधिकारकी १३ गाथाएँ साधारण पाठभेदके साथ अनुक्रमसे ज्यों-की-त्यों उपलब्ध होती हैं । इसी प्रकार कम्मपयडिके उपशमकरणमें कषायपाहुडके दर्शनमोहोपशमना अर्थाधिकारको चार गाथाएं कुछ पाठभेदके साथ पायी जाती हैं। इससे स्पष्ट है कि आचार्य गुणधर केवली और श्रुतकेवलियोंके अनन्सर पहले पूर्वविद् हैं, जिन्होंने 'महाकम्मपडिपाहड'का संक्षेपमें उपसंहार किया । महान् अर्थको अल्पाक्षरों में निबद्ध करनेकी प्रतिभा उनमें विद्यमान थी। यही कारण है कि कसायपाहुडका उत्तरकालीन सभी वाङ्मयपर प्रभाव है। आचार्य धरसेन
धवलामें बताया गया है कि छपखंडागम विषयके ज्ञाता आचार्य धरसेन थे । सौराष्ट्र देशके गिरिनगर नामके नगरको चन्द्रगुफामें रहने वाले अष्टांगमहानिमित्त के पारगामी, प्रवचनवत्सल और अङ्गश्रुतके विच्छेदकी आशंकासे भीत धरसेनाचार्यने किसी धर्मोत्सव आदिके निमित्तसे महिमानामको नगरीमें सम्मिलित हुए दक्षिणापथके आचार्यो के पास एक पत्र लिखा । इस पत्रमें उन्होंने यह इच्छा व्यक्त की कि योग्य शिष्य उनके पास आकर षट्खण्डागमका अध्ययन करें। दक्षिण देशके आचार्यों ने शास्त्रके अर्थग्रहण और धारणमें समर्थ देश, कुल, शोल, और जातिसे उत्तम, समस्त कलाओं में पारंगत दो आचार्योंको वेणा नदीके तटसे आन्ध्रदेशसे भेजा । इन दोनोंने वहां पहुंचकर आचार्य धरसेनकी तीन प्रदक्षिणाएं दों और उनके चरणों में बैठकर सविनय नमस्कार किया । आचार्य धरसेनने उन दोनों योग्य शिष्योंकी परीक्षा ली और परीक्षामें उत्तीर्ण होनेके पश्चात् उन्हें सिद्धान्तकी शिक्षा दी। ये दोनों मुनि पुष्पदन्त और भूतबलि नामके थे । यह शिक्षा आषाढ शुक्ला एकादशीको ज्यों ही पूर्ण हुई, वर्षा कालके समीप आ जानेसे उसी दिन अपने पाससे धरसेनने उन्हें विदा कर दिया। दोनों शिष्यों ने गुरुको आज्ञा अनुल्लंधनीय मानकर उसका पालन किया और वहाँसे चलकर अंकलेश्वरमें चातुर्मास किया ।
इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार और विबुध श्रीधरकृत श्रुतावतारमें लिखा है कि
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : ४३