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गुणधरकी रचना-शक्ति और प्रतिभा
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हायपाहुका विश्वाचार्यको कर महावीरकी आरातीयपरम्परासे प्राप्त हुआ है। वीरसेनाचार्यने जयघवला टीका में लिखा है। "एदम्हादो विउलगिरिमत्थयत्थवढमाणदिवाय रादो विणिग्यमिय गोदमलोहज्ज - जंबुसामियादि आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहराइरियं पाविय गाहासवेण परिणमिय" अर्थात् विपुलाचलके शिखरपर विराजमान वर्धमान दिवाकरसे प्रकट होकर गौतम, लोहाचार्य, जम्बूस्वामी आदिकी आचार्य परम्परासे आकर गुणधरको 'कम्मपर्याsपाहुड' का ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होंने गाथारूपमें इस ज्ञानका प्रतिपादन किया | स्पष्ट है कि आचार्य गुणधरको केवलियोंकी परम्परासे ज्ञान प्राप्त हुआ था । आचार्य गुणधर सूत्ररचनाशैली के प्रकाण्ड विद्वान् हैं । घवलाटीकामें आचार्य वीरसेनने उन्हें वाचक कहा है और वाचकका अर्थ पूर्वविद् लिया है । अतएव इनकी रचना-प्रतिभा मंजुल अर्थको संक्षेपमें प्रस्तुत करनेकी थी | वस्तुतः माचार्य गुणधर कम्मपथडिपाहुड' के ज्ञाता होनेके साथ ही अत्यन्त प्रतिभाशाली और विषर्यावशेषज्ञ विद्वान् थे । इनके कसायपाहुडकी प्रत्येक गाथाके एक-एक पदको लेकर एक-एक अधिकारका रचा जाना तथा तीन गाथाओंका पाँच अधिकारों में निबद्ध होना ही इनकी प्रतिभा की गंभीरता और अनन्तअर्थंग भिताकी अभिव्यक्तिको सूचित करता है। वेदक अधिकारकी 'जो जं संकामेदि य' (गाथाङ्क ६२) गाथाके द्वारा चारों प्रकारके बन्ध, चारों प्रकार के संक्र मण, चारों प्रकार के उदय, चारों प्रकारको उदीरणा और चारों प्रकारके सत्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्वकी सूचना निश्चयतः उसके गाम्भीर्य और अनन्तार्थगभिस्वकी साक्षी है । अर्थबहुलताको दृष्टिसे गुणधरकी शैली अत्यन्त गंभीर है। गुणधरके इस ग्रन्थपर यदि चूर्णसूत्र न लिखे जाते तो उनका अर्थं पश्चाद्वर्ती व्यक्तियोंके लिये दुर्बोध हो जाता ।
आचार्य शिवशके 'कम्मपर्याड' और 'सतक' नामक दो ग्रन्थ आज उपलब्ध हैं । इन दोनों ग्रन्थोंका उद्गम स्थान 'महाकम्मपर्याडपाहुड' है । 'कम्मपर्याड' के साथ जब हम गुणधरके 'कषायपाहुड' की तुलना करते हैं तो हमें इन दोनों में मौलिक अन्तर प्रतीत होता है । कम्मरयडिमें महाकम्मपयडिपाहुडके चौबीस अनुयोगद्वारोंका समावेश नहीं है । किन्तु बन्धन, उदय और संक्रमगादि कुछ अनुयोगद्वार ही प्राप्त हैं । गुणधरने अपने 'कषायपाहुड' में समस्त 'पेज्जदोषपाहुड' का उपसंहार किया है । अतः यह स्पष्ट है कि 'कम्मपय डि' की रचना शिवशर्मने गुणधरके पश्चात् ही की है । 'कम्मपर्याड' और 'सप्तक' इन दोनों ग्रन्थों के अन्त में अपनी अल्पज्ञना प्रकट करते हुए शिवशने दृष्टिवादके ज्ञाता आचार्यों से उसे शुद्ध कर लेनेकी प्रार्थना की है।
४२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा