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जिणि वत्थि जेम बह देह ण मण्णइ जिण्णु । देहि जिणि गाणि तहँ अप्पु ण मण्णइ जिण्णु ॥
-परमात्मप्रकाश, २२१७९
नष्टे वस्त्रे यथात्मानं न नष्टं मन्यते तथा । नष्टे स्वदहडप्यात्मानं न नष्टं मन्यते बुधः ।।
--समाधितंत्र, पहा ६५ यत्यु पण जेम बुहु देहु ण मण्णइ गर्छ । ण? देहे जाणि तह अप्पू ण मण्ण ण81
--परमात्मप्रकाश, दोहा ।१८० इस सुलनात्मक विवेचनसे निम्नलिखित तीन निष्कर्ष प्रस्तुत होते हैं-(१) बोइंदु पूज्यपाद (ई० सन् छठी शती के उत्तरवर्ती हैं। ' (२) जोइंदु चण्डके पूर्ववर्ती हैं। यतः घण्डने इनके पूर्वोक्त दोहेको उदाहरण के रूपमें उद्धृत किया है ।
(३) अतएव जोइंदुका समय पूज्यपादके पश्चात् और चण्डके पूर्व अर्थात् छठी शतीके पश्चात् और सातवीं शतोके पूर्व ई० सन्की छठी शताब्दीका उत्तराद्ध होना चाहिए। रचनाएं
परम्परासे जोइंदुके नामपर निम्नलिखित रचनाएं मानी जाती है११) परमात्मप्रकाश (अपन श) (२) नौकारवावकाचार (अपभ्रश) (३) योगसार (अपभ्रंश) (४) अध्यात्मसन्दोह (संस्कृत) (५) सुभाषिततंत्र (संस्कृत) (६) तत्त्वार्थटीका (संस्कृत)
इनके अतिरिक्त योगीन्द्रके नामपर दोहापाहुड (अपभ्रंश), अमृताशोत्ती (संस्कृत) और निजात्माष्टक (प्राकृत) रचनाएं भी प्राप्त होती हैं । पर यथार्थमें परमात्मप्रकाश और योगसार दो ही ऐसी रचनाएं हैं जो निर्धान्त रूपसे जोइंदुकी मानी जा सकती हैं। परमात्मप्रकाश
जोइंदु अध्यात्मवादी हैं, कवि नहीं। अपभ्रंशमें शुद्ध अध्यात्मविचारोंकी २४८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा