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हो वैशेषिक, न्याय, मीमांसा, वेदान्त आदि दर्शनोंका अध्ययन कर लिया था । इन आस्तिक दर्शनोंके अतिरिक्त ये दिङ्नाग, धर्मकीति और प्रज्ञाकर आदि बौद्ध दार्शनिकों के मन्तव्योंसे भी परिचित थे। शक संवत् १३२० के एक अभिलेखमें वर्णित नन्दिसंघके मुनियोंकी नामावलि में विद्यानन्दका नाम प्राप्त कर यह अनुमान सहजमें लगाया जा सकता है कि इन्होंने नन्दिसंघके किसी आचार्यसे दोक्षा ग्रहण की होगी। जैन-वाङ्मयका आलोडन-विलोडन कर इन्होंने अपूर्व पाण्डित्य प्राप्त विन्या। साथ हा मुनि-पद धारणकर तपश्चर्या द्वारा अपने चरितको भी निर्मल बनाया।
इनके पाण्डित्यकी ख्याति १० वी, ११ वीं शतीमें ही हो चुकी थी। यही कारण है कि बादिराजने (ई. सन् १०५५) अपने 'पार्श्वनाथचरित' नामक काव्यमें इनका स्मरण करते हुए लिखा है
ऋजुसत्र स्फुरद्रलं विद्यानन्दस्य विस्मयः ।
शृण्वतामप्यलङ्कारं दीप्तिरङ्गेषु रङ्गति ॥ आश्चर्य है कि विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवातिक और अष्टसहस्री जैसे दीप्तिमान अलङ्कारोंको सुननेवालोंके भी अङ्गोंमें दीप्ति आ जाती है, तो उन्हें धारण करनेवालोंकी बात ही क्या है ?
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि सारस्वताचार्य विद्यानन्दकी कीति ई० सन् की १०वों शताब्दिमें हो व्याप्त हो चुकी थी। उनके महनीय व्यकित्वका सभी पर प्रभाव था । दक्षिण से उत्तर तक उनकी प्रखर न्यायप्रतिभासे सभी आश्चर्यचकित थे। समय विचार ____ आचार्य विद्यानन्दने अपनी किसी भी कृतिमें समयका निर्देश नहीं किया है । अतः इनके समयका निर्णय इनकी रचनाओंको विषय-वस्तुके आधारपर ही सम्भव है। विद्यानन्द और इनकी कृतियोंपर पूर्ववर्ती ग्रन्थकार गृपिच्छाचार्य, स्वामी समन्तभद्र, श्रीदत्त, सिद्धसेन, पात्रस्वामी, भट्टाकलङ्क, कुमारसेन, कुमारनन्दि भट्टारकका प्रभाव स्पष्टसया लक्षित होता है। अतः विद्यानन्द इन आचार्यों के पश्चात्वर्ती है। विद्यानन्दते 'तत्त्वार्थश्लोकवातिकमें श्रीदत्तके जल्प और वाद सम्बन्धी नियमोंका उल्लेख किया है। वादके दो भेद हैं-१. वीतरागवाद और २. आभिमानिकवाद। वीतरागवाद तत्त्व-जिज्ञासुओंमें होता है। अतः १. जैनशिललेख संग्रह, प्रथम भाग, लेखाङ्क १०५, १२५४) । २. पाश्वनाथचरित, २२८ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ३४९