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संघकी प्राकृत पट्टावल' और त्रिलोकप्रज्ञप्ति आदिमें आया है, पर ये सभी परम्पराएं ६८३ वर्ष तकका हो निर्देश करती हैं । इसके आगेके आचार्यका कथन नहीं मिलता । अतएव श्रुतावतार आदिके आधारसे गृद्धपिच्छका समय निर्णीत नहीं किया जा सकता है |
डॉ० ए० एन उपाध्येने बहुत कहापोह के पश्चात् कुन्कुन्दके समय का निर्णय किया है, और जिससे गृद्धपिच्छ, आचार्य कुन्दकुन्दके शिष्य प्रकट होते हैं । उपाध्येजीके मतानुसार कुन्दकुन्दका समय ई० प्रथम शताब्दी के लगभग है । अतः गृद्धपिच्छाचार्य उसके पश्चात् ही हुए हैं ।
कुन्दकुन्दका समय निर्णीत हो जानेके पश्चात् आचार्य गृद्धपिच्छका समय अवगत करने में कठिनाई नहीं है । यतः पट्टावलियों और शिलालेखों में आचार्य कुन्दकुन्दके पश्चात् गृद्धपिच्छका नाम आया है। अतएव इनका समय ई० प्रथम शताब्दीका अन्तिम भाग और द्वितीय शताब्दीका पूर्वभाग घटित होता है ।
निष्कर्ष यह कि पट्टावलियों, प्रशस्तियों और अभिलेखोंके अध्ययन से गृद्धपिच्छका समय ई० सन् द्वितीय शताब्दी प्रतीत होता है ।
तस्वार्थसूत्रको रचना
आचार्य गृद्धपिच्छकी एकमात्र रचना 'तत्वार्थ सूत्र' है । इस सूत्रग्रन्थका प्राचीन नाम 'तत्त्वार्थ' रहा है । 'तत्त्वार्थ' को तीन टीकाएँ प्रसिद्ध हैं, जिनके साथ तत्त्वार्थपद लगा है, पूज्यपादकी 'तत्त्वार्थवृत्ति', जिसका दूसरा नाम 'सर्वार्थसिद्धि' है, अकलंकका 'सत्त्वार्थवार्तिक' और विद्यानन्दका तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' । अतएव इस ग्रन्थका प्राचान नाम 'तत्त्वार्थ' ही रहा है । सूत्रशैलीमें निबद्ध होनेसे उत्तरकालमें इसका 'तत्त्वार्थसूत्र' नाम प्रचलित हुआ । इस ग्रन्यकी रचनाके हेतुका वर्णन करते हुए तत्त्वार्थसूत्र के कन्नड़ टीकाकार बालचंद्रने लिखा है
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" सौराष्ट्र देश के मध्य उर्जयन्तगिरिके निकट गिरिनगर नामके पत्तनमें आसत भव्य स्वहितार्थी द्विजकुलोत्पल श्वेताम्बरभक्त सिद्धय्य नामका एक विद्वान् श्वेताम्बर शास्त्रोंका जाननेवाला था । उसने 'दर्शनशान चारित्राणि मोक्षमार्ग : ' यह सूत्र बनाकर एक पटियेपर लिख दिया था। एक दिन चर्याके लिये गृद्धपिच्छाचाय मुनि वहाँ आये और उन्होंने उस सूत्रके पहले 'सम्यक' पद जोड़ दिया। जब वह विद्वान बाहरसे लौटा और उसने पटिये पर 'सभ्य' १. जनसिद्धान्त मास्कर, माग १, किरण ४, पृ० ७१ ।
२. त्रिलोकप्रज्ञप्ति ४।१४९०-९१ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : १५३