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शब्द लगा देखा, तो वह अपनी मातासे मुनिराजके आनेका समाचार मालूम करके खोजता हुआ उनके पास पहुँचा और पूछने लगा-"आत्माका हित क्या है"। इसके बादका प्रश्नोत्तर प्रायः वही सब है, जो 'सर्वार्थसिद्धि' के प्रारम्भमें आचार्य पूज्यपादने दिया है। प्रभाचन्द्राचार्यने सर्वार्थसिद्धिपर एक टिप्पण लिखा है भीर जरा टिपणाने उन अन्य पदोंकी व्याख्या की है, जो 'सर्वार्थसिद्धि' में छूट गये हैं। इस टिप्पणमें प्रभाचन्द्रने प्रश्नकर्ता भव्यका नाम तो सिद्धय्य ही दिया है, किन्तु कथा नहीं दी है। उक्त कथामें कितना तथ्यांश है, यह नहीं कहा जा सकता।
श्रुतसागरसरिने 'तत्त्वार्थवृत्ति के प्रारम्भमें लिखा है कि किसी समय आचार्य उमास्वामि गद्धपिच्छ आश्रम में बैठे हुए थे। उस समय द्वैपायक नामक भव्यने यहाँ आकर उनसे प्रश्न किया-भगवन् ! आत्माके लिये हितकारी क्या है ? भव्यके ऐसा प्रश्न करनेपर आचार्यवर्यने मंगलपूर्वक उत्तर दिया, मोक्ष | यह सुनकर द्वैपायकने पुनः पूछा-उसका स्वरूप क्या है, और उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है ? उत्तरस्वरूप आचार्यवयंने कहा कि यद्यपि प्रवादिजन इसे अन्यथा प्रकारसे मानते हैं, कोई श्रद्धानमात्रको मोक्षमार्ग मानते हैं, कोई ज्ञाननिरपेक्ष चारित्रको मोक्षमार्ग मानते हैं। परन्तु जिस प्रकार ओषधिके केवल ज्ञान, श्रद्धान या प्रयोगसे रोगको निवृत्ति नहीं हो सकती है, उसी प्रकार केवल श्रद्धान, केवल ज्ञान या केवल चारित्रसे मोक्षको प्राप्ति नहीं हो सकती। भव्यने पूछा-तो फिर किस प्रकार उसकी प्राप्ति होती है ? इसीके उत्तरस्वरूप आचार्यने "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:" यह सूत्र रचा है और इसके पश्चात अन्य सूत्रोंकी रचना हुई है । ऐसी हो उत्थानिका प्रायः तत्त्वार्थवात्तिकमें भी आयो है। अतः उपयुंक्त कथामें कुछ तथ्य तो अवश्य प्रतीत होता है।
कनड़ो टीकाके रचयिता बालचन्द्र विक्रमको तेरहवीं शताब्दोके पूर्वार्द्ध में
पूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि' 'तत्वार्थसत्र' को उपलब्ध टोकाओंमें आध एवं प्राचीन टीका है। इसके आरम्भमें ग्रन्थ-रचनाका जो संक्षिप्त इतिवृत्त निबद्ध है उसके आधारसे स्पष्ट रूपमें कहा जा सकता है कि तत्त्वार्थसूत्रकारने तत्त्वार्थसुत्रकी रचना किसी आसनभव्यके प्रश्नके उत्तर में की है। इस भव्यका नामोल्लेख सर्वार्थसिद्धिकारने नहीं किया । उत्तवर्ती लेखकोंने किया है। उनका
१. अनेकान्त, वर्ण १, पृ० २७० ।
१५४ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्म-परम्परा