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आधार क्या है, कुछ कहा नहीं जा सकता। वह अन्वेषणीय है । इतना स्पष्ट तथ्य है कि तत्त्वार्थसूत्र किसी कासनभव्य मुमुक्षुके हितार्थ लिखा गया है । तस्वार्थसूत्रका महत्त्व
इस ग्रन्थ में जिनागमके मूल तत्त्वोंको बहुत ही संक्षेपमे निबद्ध किया है । इसमें कुल दश अध्याय और ३५७ सूत्र हैं। संस्कृत भाषा में सूत्रशैली में लिखित यह पहला सूत्रग्रन्थ है। इसमें करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणायोगका सार समाहित है। इसकी सबसे बड़ी महत्ता यह है कि इसमें साम्प्रदायिकता नहीं है । अतएव यह श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंको थोड़े-से पाठभेदको छोड़कर समानरूपसे प्रिय है । इसकी महत्ताका सबसे बड़ा दूसरा प्रमाण यह है कि दोनों ही सम्प्रदायोंके महान् आचार्यांने इसपर टीकाएँ लिखी हैं। पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्दने दार्शनिक टीकाएँ लिखकर इस ग्रन्थका महत्त्व व्यक्त किया है । विद्यानन्द ने अपनी 'आसपरीक्षा' में इसे बहुमूल्य रत्नों का उत्पादक, सलिलनिधि – समुद्र कहा है
श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्रादद्भुत सलिलनिधेरिवरत्नोद्भवस्प प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलमिदे शास्त्रकारैः कृतं यत् । स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रतिपृथुपथं स्वामिमीमांसितं तत् विद्यानन्देः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्धये ॥
प्रकृष्ट रत्नोंके उद्भव के स्थानभूत श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्ररूपी अद्भुत समुद्रकी उत्पत्ति के प्रारम्भकालमें महान् मोक्षपथको प्रसिद्ध करनेवाले मोर तीर्थोपमस्वरूप जिस स्तोत्रको शास्त्रकार गृद्धपिच्छाचार्यने समस्त कर्ममलके भेदन करनेके अभिप्रायसे रचा है और जिसकी स्वामीने मीमांसा की है, उसी स्तोत्रका सत्यवाक्यार्थ ( यथार्थता ) को सिद्धिके लिए मुझ विद्यानन्दने अपनी शक्तिके अनुसार किसी प्रकार व्याख्यान किया है।
तत्त्वार्थं सूत्र जैन धर्मका सारग्रन्थ होनेसे इसके मात्र पाठ या श्रवणका फल एक उपवास बताया गया है, जो उसके महत्त्वको सूचित करता है । वर्तमानमें इस ग्रन्थको जैन परम्परामें वही स्थान प्राप्त है, जो हिन्दू धर्म में भगवद्गीता' को, इस्लाम में 'कुरान' को और ईसाई धर्ममें 'बाइबिल' को प्राप्त है। इससे पूर्व प्राकृत भाषा में ही जैन ग्रन्थोंकी रचना की जाती थी । इसी भाषामें भगवान् महावीरकी देशना हुई थी और इसी भाषामें गौतम गणधरने अंगों १. डॉ० दरबारीलाल कोठिया, आप्तपरीक्षा, उपसंहार-पद्य, पक्ष-संख्या १२३, वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर ) ।
भुतघर और सारस्वताचार्य १५५