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और पूर्वोको रचना की थी। पर जब देश में संस्कृत भाषाका महत्त्व वृद्धिंगत हुआ और विविध दर्शनोंके मन्तब्द सूत्ररूप में निबद्ध किये जाने लगे, तो जैन परम्पराके आचार्योंका ध्यान भी उस ओर आकृष्ट हुआ और उसके फलस्वरूप तत्वार्थ सूत्र जैसे महत्त्वपूर्ण संस्कृत-सूत्रग्रन्थको रचना हुई । इस तरह जैन वाङ्मय में संस्कृत भाषाके सर्वप्रथम सूत्रकार गृद्धपिच्छ हैं और सबसे पहला संस्कृत-सूत्रग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र है ।
वयं विषय
तत्त्वार्थसूत्र धर्म एवं दर्शनका सूत्रग्रन्थ है । इसकी रचना वैशेषिक दर्शन के 'वैशेषिकसूत्र' ग्रन्थकं समान हुई है। वैशेषिक दर्शन के प्रारम्भ में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव इन सात पदार्थोंके तत्वज्ञान से मोक्षप्राप्तिकी बात कही गयी है। अतः इस सूत्रग्रन्थ में मुख्यरूपसे उक्त सात पदार्थों का विवेचन आया है। सांख्य दर्शनमें प्रकृति और पुरुषका विचार करते हुए जगत्के मूलभूत पदार्थोका ही विचार किया है । इसी प्रकार वेदान्तदर्शनम जगतके मूलभूत तत्व ब्रह्मकी मीमांसा की गयी है । न्यायदर्शनमें प्रमाण, प्रमेव, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धांत, अवयय, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान इन सोलह पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्षकी प्राप्ति बतलायी है | न्यायदर्शनमें अर्थपरोक्षाके साधनों का ही कथन अया है । योगदर्शन में जीवन में अशुद्धता लानेवाली चित्तवृत्तियों का और उनके निरोधका तथा तत्सम्बन्धी प्रक्रियाका प्रतिपादन आया है। इस प्रकार पूर्वोक्त दर्शनोंका विषय ज्ञेयप्रधान या ज्ञानसाधनप्रधान अथवा चारित्रप्रधान है ।
पर 'तत्त्वार्थ सूत्र' में ज्ञान, ज्ञय और चारित्रका समानरूपसे विवेचन आया है । इसका प्रधान कारण यह है कि जहां वैशेषिक आदि दर्शनों में केवल तत्वज्ञान से 'निःश्रेयस्' प्राप्ति बतलायी गयी है वहाँ जेनदर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के समुच्चयको मोक्षका मार्ग कहा है । तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय द्वितीयसूत्रमें जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वोंके सम्यक्दर्शन और छठे सूत्रमें इनके यथार्थज्ञानको सम्यक्ज्ञान कहा है | तत्त्वार्थ सूत्रकारने हेय और उपादेयरूपमें केवल इन्हीं सात तत्त्वोंको श्रद्धेय एवं अधिगम्य बतलाया है। मोक्षमार्ग में इन्हीं का उपयोग है | अन्य अनन्त पदार्थोंका नहीं । इससे पूर्व समयसारमें भी निश्चयनय और व्यव हारनयसे इन्हीं सातों तत्त्वोंका निरूपण किया है ।
अतएव आचार्य गृद्धपिच्छने इस तत्त्वार्थसूत्रमें दश अध्याओंकी परिकल्पना
१५६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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