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है और धार्मिक आयोजन पूर्वक निम्बप्रतिष्ठाविधिको सम्पन्न कराता है । नास्तिक मतोंका खण्डन कर मंत्रियोंके संदेहको निर्मूल कर उन्हें दृढ़ श्रद्धानी बनाता है । कुछ दिनोंके अनन्तर कुमार वरांगकी अनुपमा महारानीको कुक्षिसे पुत्रका जन्म होता है, जिसका नाम सुगान रखा जाता है ।
एक दिन कुमार बरांग आकाशसे टूटते हुए तारेको देखकर विरक्त हो जाता है और उसे संसारको अनित्यताका भान होता है । वह अपने पुत्र सुगात्र को राजसिंहासन सौंपकर वरदत्त केवलोके समक्ष जाता है और वहां दिगम्बरो दीक्षा ग्रहण कर लेता है । रानियाँ भी धार्मिक दोक्षा धारण करता हैं । वराङ्ग कुमार उग्र तपश्चरण करता है और शुक्लध्यान द्वारा कर्मशत्रुओं को परास्त कर सद्गति लाभ करता है ।
समीक्षा
प्रस्तुत 'वरांमचरित' के रचयिताने इसे धर्मकथा कहा है । पर वस्तुतः है यह पौराणिक महाकाव्य । इसमें पौराणिक काव्यके तत्त्व समवेत हैं । कविने आरम्भमें ही कहा है
द्रव्यं फलं प्रकृतमेव हि सप्रभेदं
क्षेत्र च तीर्थमथ कालविभागभावी । अङ्गानि सप्त कथयन्ति कथाप्रबन्धे
तेः संयुक्ता भवति युक्तिमती कया सा || ---बराङ्गचरितम् ११६
स्पष्ट है कि कविने इसे धर्मकथा - पौराणिक कथाकाव्य कहकर इसमें पुराणके सात अंगों का समावेश किया है । कथा रामबद्ध है तथा कथामें नाटककी सन्धियों का नियोजन भी है। आरम्भसे बराङ्गके जन्म तकको कथा में मुखसन्धिका नियोजन है । वरांगका युवराज होना और ईष्यांका पात्र बनना प्रतिमुख- सन्धि है । घोड़े द्वारा उसका अपहरण, कुँएमें गिराया जाना, कुँएसे निकल कर बाहर आना, व्याघ्र, भिल्ल आदिके आक्रमणोंसे उसका रक्षित रहना तथा कुमार वराङ्गका सागरदत्त सेठके यहाँ गुप्तरूपसे निवास करना, बकुलाधिप का उत्तमपुर पर आक्रमण करना और कुमार द्वारा प्रतिरोध करने तककी कथावस्तु में गर्भसन्धि है। इस सन्धिमें फल छिपा हुआ है और प्राप्त्याशा और पताकाका योग भी वर्तमान है । कुमारकी दिग्विजय, राज्यस्थापना तथा प्रतिद्वन्द्वी सुषेण द्वारा शत्रुताका त्याग नियताप्ति है । दिग्विजयके कारण
श्रुतवर और सारस्वताचार्य : २९७