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प्राभूतको उपसंहृत करनेके लिए प्रवृत्त हुए थे, स्वरचित गाथाओंको अधिकारोंमें विभक्त करनेके लिए नहीं ।
'सप्तेदा गाहाओ'; 'एदाओ सुप्त गाहाओं' आदि पदोंसे यह ध्वनित होता है कि इन गाथाओंकी रचनासे पूर्व मूलगाथाओं और भाष्यगाथाओंकी रचना हो चुकी थो । अन्यथा अमुक गाथासूत्र है, इस प्रकारका कथन संभव हो नहीं था । अतएव व्याख्याकारोंके, 'गाहासदे असीदे' प्रतिज्ञावाक्य नागहस्तिका है, इस अभिमतको सर्वथा उपेक्षणीय नहीं माना जा सकता है ।
कसा पाहुडमें १५ अधिकार हैं जो निम्न प्रकार हैं
१. प्रकृति-विभक्ति अधिकार
२. स्थिति-विभक्ति अधिकार
३. अनुभाग- विविध अधिका
४. प्रदेश - विभक्ति - शीणाझीण स्थित्यन्तिक
५. बंधक अधिकार
६. वेदक अधिकार
७. उपयोग अधिकार
८. चतुःस्थान अधिकार ९. व्यञ्जन अधिकार
१०. दर्शन मोहोपशमना अधिकार ११. दर्शनमोक्षपणा अधिकार १२. संयम संयम लब्धि अधिकार १३. संयमलब्धि अधिकार १४. चारित्रमोहोपशमना
१५. चारित्रमोहक्षपणा
१. प्रकृति-विभक्ति - अधिकारका अन्य नाम 'पेज्जदोस- विभत्ति' है । यतः कषाय पेज्ज - राग या द्वेषरूप होती है। चूर्णिसूत्रों में क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायोंका विभाजन राग और द्वेषमें किया है। नैगम और संग्रह की दृष्टिसे क्रोध और मान द्वेषरूप हैं तथा माया और लोभ रागरूप हैं। व्यवहारनय मायाको भी द्वेषरूप मानता है । यतः लोकमें मायाचारीकी निन्दा होती है । ऋजुसूत्रनय कोषको द्वेषरूप तथा लोभको रागरूप मानता है। मान और माया न तो रागरूप हैं और न द्वेषरूप ही; क्योंकि मान क्रोधोत्पत्तिके द्वारा द्वेषरूप है तथा माया लोभोत्पत्ति के कारण रागरूप हैस्वयं नहीं । अतः इस परम्पराका व्यवहार ऋजुसूत्रतयकी सीमामें नहीं आता ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ३५