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फल आठ आकृतियों द्वारा निकाला गया है । ये आकृतियां सामान्य, ऊर्ध्वायत, सिर्गायत यवमुरज, यदमध्य, मन्दर, दूष्य और गिरिकटक है। पिनष्टि क्षेत्रका क्षेत्रफल तो आश्चर्यजनक रीतिमें निकाला गया है । अघोलोकके पश्चात् उर्ध्वलोकका सामान्य वर्णन आया है और उसका भी क्षेत्रफल निकाला गया है । इसके पश्चात् सनालीका कथन आया है। यह त्रसनाली एक राजु लम्बी और चौग चौड़ी होती है साधिकार अन्तर्गत ही नरकोंके पटलोंका कथन किया किया है। प्रथम नरक में १३, द्वितीय में ११, तृतोममें ९ चतुर्थ में ७, पंचममें ५ षष्ट में ३ और सप्तम में १ इन्द्रक है । पश्चात् नारकीय जीवोंके रहन-सहन, उनके क्षेत्रगत दुःख आदिका वर्णन किया है ।
वस्तुतः इस ग्रन्यमें जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, मानुषक्षेत्र, भवनवासियोंके रहनेके स्थान, आवास, भवन, आयु, परिवार आदिका विस्तृत वर्णन किया है । ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक, तारा एवं सूर्य, चन्द्रके आयु, विमान, गति, परिवार आदिका भी सांगोपांग वर्णन पाया जाता है। स्वर्गकि सुख, विमान एवं वहाँके निवासियोंकी शक्ति आदिका भी कथन आया है। त्रिलोककी रचनाके सम्बन्धमें सभी प्रकारकी जानकारी इस ग्रन्यसे प्राप्त की जा सकती है। लब्धिसार
आचार्य नेमिचन्द्रकी तीसरी रचना लम्बिसार है । यह भी गाथाबद्ध है । इसके दो संस्करण प्रकाशित हैं - एक रायचन्द्र शास्त्रमाला बम्बईसे और दूसरा हरिभाई देवकरण ग्रन्थमालासे । इस ग्रन्थ में ६४९ गाथाएं हैं । सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रकी लब्धि अर्थात् प्राप्तिका कथन होनेके कारण इसके नामकी सार्थकता बतलायी गयी है। सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति पाँच लब्धियोंके प्राप्त होनेपर ही होती है। वे लब्धियाँ हैं—क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण। इनमेंसे प्रारम्भकी वार लब्धियों तो सर्वसाधारणको होती रहती हैं, पर करणलब्धि सभीको नहीं होती। इसके प्राप्त होनेपर ही सम्यक्त्वका लाभ होता है। इन लब्धियोंका स्वरूप ग्रन्थके प्रारम्भमें दिया है । अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणको प्राप्तिको ही करन
for कहा गया है । अनिवृत्ति करके होने पर अन्तर्मुहूर्तके लिए प्रथमोपशम सम्यक्त्वका लाभ होता है। प्रथमोपशम सम्यषस्व के कालमें कम-से-कम एक समय और अधिक से अधिक छह आवली काल शेष रहनेपर यदि बनन्तानुबन्धी कषायका उदय आ जाता है, तो जीव सम्यक्त्वसे व्युत होकर सांसादनसम्यक्स्वी बन जाता है और उपशमसम्यक्त्वका काल पूरा होनेपर यदि मिथ्यात्वकर्मका उदय का जाये, तो जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। इस
४३२ : तीयंकर महावीर और उनकी वाचार्य परम्परा