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इन प्रमुख ग्रन्योंके अतिरिक पूज्यपादके वैद्यक सम्बन्धी प्रयोग भी उपलब्ध हैं। जैनसिद्धान्तभवन आरासे 'वैद्यसारसंग्रह' नामक ग्रन्थमें कतिपय प्रयोग प्रकाशित हैं। छन्दशास्त्र सम्बन्धी भी इनका कोई अन्य रहा है, जो उपलब्ध नहीं है। देवनन्धि-पूज्यपादका वैवुष्य एवं काव्यप्रतिभा ___ जीधन और जगत्के रहस्योंकी व्याख्या करते हुए, मानवीय व्यापारके प्रेरक, प्रयोजनों और उसके उत्तरदायित्वकी सांगोपांग विवेचना पूज्यपादके ग्रन्थोंका मूल विषय है। व्यक्तिगत जीवनमें कवि आत्मसंयम और आत्मशुद्धि पर बल देता है । ध्यान, पूजा, प्रार्थना एवं भक्तिको उदात्त जीवनकी भूमिकाके लिये आवश्यक समझता है। आचार्य पूज्यपादको कवितामें काव्यत्तत्त्वको अपेक्षा दर्शन और अध्यात्मतत्त्व अधिक मुखर है। शृङ्गारिक भावनाके अभावमें भो भक्तिरसका शोसल जल मन और हृदय दोनोंको अपूर्व शान्ति प्रदान करने की क्षमता रखता है । शब्द विषयानुसार कोमल हैं, कभी-कभी एक ही पद्यमें ध्वनिका परिवर्तन भो पाया जाता है । वस्तुतः अनुरागको हो पूज्यपादने भक्सि कहा है और यह अनुराग मोहका रूपान्तर है । पर वीतरागके प्रति किया गया अनुराग मोहको कोटिमें नहीं आता है। मोह स्वार्थपूर्ण होता है और भक्तका अनुराग निःस्वार्थ । वीतरागीसे अनुराग करनेका अर्थ है, तद्रूप होनेकी प्रबल आकांक्षाका उदित होना । अतएव पूज्यपादने सिद्धभक्तिमें सिद्धरूप होनेकी प्रक्रिया प्रदर्शित की है।
उनके वैदुष्यका अनुमान सर्वार्थसिद्धिग्रन्थसे किया जा सकता है। नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, बौद्ध आदि विभिन्न दर्शनोंको समीक्षा कर इन्होंने अपनी विद्वत्ता प्रकट की है। निर्वचन और पदोंकी सार्थकताके विवेचनमें आचार्य पूज्यपादकी समकक्षता कोई नहीं कर सकता है। ___ आचार्य पूज्यपादने कविके रूपमें अध्यात्म, आचार और नीतिका प्रतिपादन किया है । अनुष्टुप् जैसे छोटे छन्दमें गम्भीर भावोंको समाहित करनेका प्रयत्न प्रशंसनीय है। आचार्यने सुख-दुःखका आधार वासनाको ही कहा है, जिसने आत्मतत्त्वका अनुभव कर लिया है, उसे सुख-दुःखका संस्पर्श नहीं होता।
वासनामयमेवैतत् सुखं दुःखं च देहिनाम् । तथा ह्यद्वेजयन्त्येते, भोगा रोगा इवापदि'।
१. इष्टोपदेश, पद्य ६ ।
सपर और सारस्वताचार्य : २३५