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के शिष्य अल्पशानी नेमिचन्द्रने दर्शनलब्धि और चारित्रलब्धिका कथन किया। है।" "त्रिलोकसार' में अपनी गुरुपरम्पराका कथन करते हुए लिखा है
"इदि णेमिचंदमुणिणा अप्पसुदेणभयणंदिवच्छेण ।
रइयो तिलोयसारो स्खमंतु तं बहुसुदाईरिया ॥२ अर्थात् अभयनन्दिके वत्स अल्पश्रुतज्ञानी नेमिचन्द्रमुनिने इस त्रिलोकसार अन्यको रचा।
उपर्युक्त ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंसे स्पष्ट है कि अभयनन्दि, बीरनन्दि और इन्द्रमन्दि इनके गुरु थे। इन तीनोंमेंसे वोरनन्दि तो चन्द्रप्रभवरितके का ज्ञात होते हैं, क्योंकि उन्होंने चन्द्रप्रभचरितको प्रशस्तिमें अपने को अभयनन्दिका शिष्य बतलाया है और ये अभयनन्दि नेमिचन्द्र के गुरु ही होना चाहिये, क्योंकि कालगणनासे उनका वही समय आता है। अतः स्पष्ट है कि उक्त तीनों गुरुओंमें अभयनन्दि ज्येष्ठ गुरु होने चाहिये । वीरनन्दि, इन्द्रनन्दि और नेमिचन्द्र जनके शिष्य रहे होंगे। यहाँ यह कल्पना करना उचित नहीं कि नेमिचन्द्र सबसे छोटे थे, अतः उन्होंने अभयनन्दिके शिष्य वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिसे भी शास्त्राध्ययन किया हो । वस्तुतः अभयनन्दिके वीरमन्दि, इन्द्रनन्दि और नेमिचन्द्र ये तीनों ही शिष्य थे 1 वय और ज्ञानमें लघु होनेके कारण नेमिचन्द्रने वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिसे भी लगाया होर
नेमिचन्द्रने बीरनन्दिको चन्द्रमाको उपमा देकर सिद्धान्तरूपी अमृतके समुद्रसे उनका उद्भव बतलाया है | अत: वीरनन्दि भी सिद्धान्तग्रन्थोंके पारगामी थे। इन्द्रनन्दिको तो, नेमिचन्द्रने स्पररूपसे श्रुतसमुद्रका पारगामी लिखा है । उन्हीं के समीप सिद्धान्तग्रन्थोंका अध्ययन करके कनकनन्दि आचार्यने सत्त्वस्थानका कथन किया है । उसी सत्त्वस्थानका संग्रह नेमिचन्द्रने कर्मकाण्ड गोम्मटसारमें किया है
वरइंदणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्धतं ।
सिरिकणयणंदिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुदिटुं ।' इन्द्रनन्दिके सम्बन्धमें आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने लिखा है-'इस नामके कई आचार्य हो गये हैं, उनमें से 'ज्वालामालिनीकल्प' के कर्ता इन्द्रनन्दिने अपने इस ग्रन्थका रचनाकाल शक सं० ८६१ (वि० से ० ९९६) दिया है और १. लब्धिसार, माथा ६४८। २. त्रिलोकसार, गाथा १०१८ । ३. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ३९६ ।
श्रुतबर और सारस्वताचार्य : ४१९