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रूपमें लिखी गयी है। कारिकाएँ और वृत्ति दोनों प्रौढ़ एवं गम्भीर भाषामें निबद्ध हैं। उनसे अकलङ्कदेवकी सूक्ष्म प्रज्ञा और तीक्ष्ण समालोचना अवगत कर पाठक प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। उदाहरणार्थ नित्येकान्त, क्षणिकैकान्त आदिकी उनके द्वारा की गयी समीक्षा दुष्ष्य है
अत्यन्ताभेदभेदौ न तद्वतो न परस्परम् । दृश्यादृश्यात्ममोर्बुद्धिनिर्भासक्षणभङ्गयोः ॥ सर्वथार्थक्रियाऽयोगात् तथा सुप्तप्रबुद्धयोः । अंशयोर्यदि तादात्म्यमभिज्ञानमनन्यवत् ।। संयोगसमवायादिसम्बन्धाद्यादि घर्तते।
अनेकत्रैकमेकत्रानेक वा परिणामिनः || सर्वथा नित्यका खण्डन करते हुए लिखा है
नित्यं सर्वगतं मत्वं निरंशं व्यमिभियंटि ।। व्यक्तं व्यक्तं सदा व्यक्तं त्रैलोक्यं सचराचरम् । सत्तायोगाद्विना सन्ति यथा सत्तादयस्तथा ॥ सर्वेऽर्थाः देशकालाश्च सामान्य सकलं मतम् ।
सर्वभेदप्रभेदं सत् सकलाङ्ग शरीरवत् ।। ३. प्रमाणसंग्रह
इसमें ९ प्रस्ताव और ८७३ कारिकाएँ हैं 1 प्रथम प्रस्तावमें ९ कारिकाएं, द्वितीयमें ९, तृतीयमें १०, चतुर्थमें ११३, पञ्चममें १०६, षष्ठमें १२३, सप्तममें १०, अष्टममें १३ और भवममें २ कारिकाएं हैं। प्रथम प्रस्तावमें प्रत्यक्षका लक्षण, श्रुतका प्रत्यक्षानुमानागमपूर्वकत्व, प्रमाणका फल, मुख्यप्रत्यक्षका लक्षण आदि प्रत्यक्षविषयक सामग्री णित है।
द्वितीय प्रस्तावमें स्मृतिकी प्रमाणता, प्रत्यभिज्ञानका प्रामाण्य, तर्कका लक्षण, प्रत्यक्षानुपलम्भसे तर्कका उद्भव, कुतर्कका लक्षण, विवक्षाके बिना भी शब्दप्रयोगका सम्भव, परोक्ष पदार्थोंमें श्रुतसे अविनाभावग्रहण आदिका कथन है।
इस प्रस्तावमें परोक्षके भेद, स्मृति प्रत्यभिज्ञान और तर्कका विशेष रूपसे कथन आया है। १. न्यायविनिश्चय सवृत्ति, प्रत्यक्षप्रस्ताव, कारिका १४१-१४३ । २. बहो. प्रत्यक्षप्रस्ताव, कारिका १५१-१५३ । ३. अकलङ्कग्रन्थ त्रय सिपी सिरीज ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ३११