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जो कवियों में तीर्थंकरके समान थे, अथवा जिन्होंने कवियोंका पथप्रदर्शन करनेके लिये लक्षणग्रन्थकी रचना की थी और जिनका बचनरूपी तीर्थ विद्वानोंके शब्दसम्बन्धी दोषोंको नष्ट करनेवाला है, ऐसे उन देवनन्दि आचार्यका कोन वर्णन कर सकता है।
ज्ञानार्णवके कर्ता आचार्य शुभचन्द्रने इनकी प्रतिभा और वैशिष्ठ्यका निरूपण करते हुए स्मरण किया है
अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाकचित्तसम्भवम् ।
कलङ्कमङ्गिनां सोऽयं देवनन्दो नमस्यते ।। जिनको शास्त्रपद्धति प्राणियोंके शरीर, वचन और चित्तके सभी प्रकारके मलको दूर करनेमें समर्थ है, उन देवनन्दि आचार्यको मैं प्रणाम करता हूँ।
आचार्य देवनन्दि-पूज्यपादका स्मरण हरिवंशपुराणके रचयिता जिनसेन प्रथमने भी किया है। उन्होंने लिखा है--
इन्द्र चन्द्रार्कजैनेन्द्रव्याडिव्याकरणे क्षिणः !
देवस्य देववन्यस्य न वन्यन्ते गिरः कथम् ॥ अर्थात् जो इन्द्र, चन्द्र, अर्क और जैनेन्द्र व्याकरणका अवलोकन करनेवाली है, ऐसो देवबन्ध देवनन्दि आचार्यको वाणी क्यों नहीं वन्दनीय है ।
इससे स्पष्ट है कि आचार्य देवनन्दि प्रसिद्ध वैयाकरण और दार्शनिक विद्वान थे और विद्वन्मान्य ।
इनके सम्बन्धमें आचार्य गुणनन्दिने इनके व्याकरण सूत्रोंका आधार लेकर जैनेन्द्र प्रक्रियामें मंगलाचरण करते हुए लिखा है
नमः श्रीपूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रमम् ।
यदेवात्र तदन्यत्र यन्नावास्ति न तत्क्वचित् ।। जिन्होंने लक्षणशास्त्रकी रचना की है, मैं उन आचार्य पूज्यपादको प्रणाम करता हूँ। उनके इस लक्षणशास्त्रकी महत्ता इसीसे स्पष्ट है कि जो इसमें है, वह अन्यत्र भी है और जो इसमें नहीं है, वह अन्यत्र भी नहीं है।
उनके साहित्यकी यह स्तुति-परम्परा धनंजय, बादिराज आदि प्रमुख - - १. ज्ञानार्णव १११५. रायचन्द्र शास्त्रमाला संस्करण, विक्रम सम्बत् २०१५ । २. हरिवंशपुराण १।३, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वि० सं० २०१९। ३, जैनेम्न प्रक्रिया, बन सिद्धान्तप्रकाशनो संस्था, कलकत्ता संस्करण, मंगलपन । २१८ : तीर्थकर महावीर और उमको आचार्य-परम्परा