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सूत्रोंका व्यवहार किया है, उन शब्दोंके लिये जैनेन्द्र व्याकरणमें एक ही सूत्रसे साधनिका प्रस्तुत कर दी गयी है ।
जैनेन्द्र व्याकरणमें स्त्री प्रत्यय, समास एवं कारक सम्बन्धी भी फतिपय विशेषताएँ पायो जाती हैं। 'कारके' ११२।१०९ को अधिकारसूत्र मानकर कारक प्रकरणका अनुशासन किया है। देवनन्दिने पंचमी विभवितका अनुशासन सबसे पहले लिखा है, पश्चात् चतुर्थी, तृतीया, सप्तमी, द्वितीया और षष्ठो विभक्तिका नियमन किया है । यह कारकप्रकरण बहुत संक्षिप्त है, पर जितनी विशेषताएं अपेक्षित हैं उन सभीका यहां नियमन किया गया है। इसी प्रकार तिङन्त, तद्धित और कृदन्त प्रकरणोमें भी अनेक विशेषताएं दृष्टिगोचर होती हैं।
इस व्याकरणकी शब्दसाधुत्वसम्बन्धी विशेषताओंके साथ सांस्कृतिक विशेषताएँ भी उल्लेख्य हैं । यहाँ सांस्कृतिक शब्दोंकी तालिका उपस्थित कर उक्त कथनको पुष्टि की जा रही है ।
पति पनसम् ११३ पक्व, पक्ववान् १२४ अतितिलपीडनिः श८-तिलकुट या तेल पेरनेवाली अतिराजकुमारिः ११८ कुवलम्, बदरम्-झरवेर १५११९ आमलव्यम् श१९ पञ्चशष्कुलः शर पञ्चगोणिः १।११० पञ्चमूचिः, सप्तशूचिः १११।१० दधि, मधु श१।११ अश्राद्धभोजी, अलवणभोजी १२१३२ द्रौघणके जातो द्रौषणकीयः शश६८ छतप्रधानोरोदि ११११७१ सम्पन्नानीह्यः—एकोब्रीहिः सम्पन्नः सुभिक्षं करोति १।१९९९ द्वावपूपी भक्षयेति ।१० नाक्यति तैलं शरा८३ यवागू: १।२।२२-जौका हलुआ या लापसी रूपकारः पति शरा१०३ कांस्यपात्र्यां भुङ्क्ते १।११०
वृक्षमवचिनोति फलानि शरा१२१ २३२ : तोपकर महापौर और मनको बाचाय-परम्परा