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पण मय वीरजिणिदं सुरसेजण मंसियं विमलणाणं । वोच्छं दंसणसारं जह कहियं पुख्वसूरीहि ॥ * भरहे तित्ययराणं पणमिय देविदणागरुडाणं । समएलु होंति केई मिच्छत्तपवट्टगा जीवा ॥२
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सिरियासणाहतित्ये सरयूतीरे पलासणयरत्थो । पिहियासचस्स सिस्सो महासुदो बुड्डकित्तिमुणी ॥
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गंदिवडे वरगामे कुमारी य सत्यविषाणी । कट्टो दंसणभट्टो जादो सल्लेहणाकाले ॥ ४ तत्तो दुसए तोदे महुराए माहुराण गुरुणा हो । णामेण रामसेणो णिष्पिच्छं वण्णियं तेण ॥
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दर्शनसारसे देवसेनके अक्खड़ स्वभावका पता चलता है। उन्होंने अन्तिम गाथा में अपनी स्पष्टता व्यक्त करते हुए लिखा है
रूसउ तूसउ लोओ सन्वं अक्वंयस्स साहुस्स । कि जूयभए साडी विवज्जियव्वा णरिदेण ॥ *
सत्य कहने वाले साधुसे कोई रुष्ट हो, चाहे सन्तुष्ट हो, इसको चिन्ता नहीं । क्या राजाको युका (आ) के भयसे वस्त्र पहनना छोड़ देना चाहिए ? कभी नहीं ।
इससे देवसेनका अक्खड़पना प्रकट होता है ।
२. भावसंग्रह
इस ग्रन्थमें ७०१ गाथाएं हैं। इसमें चौदह गुणस्थानोंका अवलम्बन लेकर fafaa विषयोंका निरूपण किया गया है। दो गाथाओं द्वारा १४ गुणस्थानोंके नाम बतला कर मिथ्यात्वगुणस्थानका स्वरूप प्रतिपादित किया है । मिध्यात्वके एकान्त, विनय, संशय, अज्ञान और विपरीत इन पांच भेदोंको बतलाकर ब्राह्मण मलको विपरीतमिध्यादृष्टि कहा है
nors जलेण सुद्धि तिति मंसेण पियरवग्गस्स । पसुकयवहेण सग्गं धम्मं गोत्रोणिफासेण ॥ जइ जलम्हाणपउत्ता जोवा मुइ निययपावेण ! तो तत्थ वसिय जलयरा सव्वे पावंति दिवलोयं ॥
१-५. दर्शनसार, गाथा १, २, ६, ३९, ४० । ६. दर्शनसार, गाथा ५१ ।
श्रुतवर
और सारस्वताचार्य : ३७१