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निरूपण आदि अनेक विशेषताएं विद्यमान हैं। मलग्रन्थकारने जिन भावोंको छोड़ भी दिया है उनका भी प्रकटीकरण टीकाकारने किया है । टीका समस्यन्त गद्यमें लिखी गयी है, शेली पर्याप्त प्रोढ़ है और शब्दार्थके स्थानपर विषयको स्पष्ट करनेवाली है । यथा___ "यतो न खल्विन्द्रियाण्यालम्ब्यावग्रहहावायपूर्वकप्रक्रमेण केवली विजानाति, स्वयमेव समस्तावरणक्षयक्षण एवानाद्यनन्ताहेतुकासाधारणभूतज्ञानस्वभावमेव कारणलेनोपादाय तदुपरि प्रविकसत्केवलज्ञानोपयोगीभय विपरिणमते, ततोऽस्याक्रमसमाक्रान्तसमस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया समक्षसंवेदनालम्बनभूताः सर्वद्रव्यपर्यायाः प्रत्यक्षा एव भवन्ति ।" पश्चास्तिकाय-टोका
पंचास्तिकायकी १७३ गाथाओंपर आचार्य अमृतचन्द्रने टीका लिखी है । टीकाकारने इस अन्यको मार मगाम विभाजित किया है
१. पोठिका २. प्रथम श्रुतस्कन्ध ३. द्वितीय श्रुमुस्कन्ध ४. धूलिका
पीठिकामें २६ गाथाएं हैं और उनकी व्याख्या उक्त दोनों ग्रन्थोंके समान हो की गयी है। प्रथम श्रुतस्कन्धमें ७८ गाथाओंकी व्याख्या है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध ४९ गाथाओंकी व्याख्या दी गयी है। चूलिकामें बीस गाथाओंकी टीका है। इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने पंचास्तिकायके विषयको भी अपनी टीकामें विस्तृत और स्पष्ट बनानेका पूर्ण प्रयास किया है। इस टीकाका नाम भी तत्त्वदीपिका है।
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती विक्रमको नवम शताब्दीमें घवला और जयघवलाको रचनाके पश्चात् सिद्धान्तविषयक विद्वत्ताका मापदण्ड इन ग्रन्थों को मान लिया गया और इनके पठन-पाठनका सर्वत्र प्रचार हुआ । कालक्रमानुसार ये दोनों अगाध टीकाएं जब दुष्कर प्रतीत होने लगों, तो इनके सारभागको एकत्र करनेके लिए सिद्धान्तचक्रवर्तीने प्रयास किया। सिद्धान्तचक्रवर्ती इनकी उपाधि थी। इन्होंने अपने गोम्मटसार कर्मकाण्डमें बताया है
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ४१७