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ही उक्त कथन किया गया है। सांख्यदर्शनके साथ इसका कुछ भी मेल नहीं है। हाँ, कौलिक सम्प्रदायमें उक्त सिद्धान्त अवश्य स्वीकृत है। राजशेखरने अपनी 'कर्पूरमंजरी-सट्रक में रण्डा, चण्डा आदिके भोगका औचित्य बतलाया है । अतः कपिलदर्शनका यह सिद्धान्त न होकर, स्मृति या कोलिक सम्प्रदायका सिद्धान्त है। देवसेनने इसी सिद्धान्तको समीक्षा को है।
तुतीय मिश्रगुणस्थानका कथन करते हुए ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रको समालोचना की गयी है । ब्रह्माकी आलोचना करते हए तिलोत्तमा आदिके उपाख्यानोंको उपस्थित किया है । विष्णुको आलोचनामें उनके विभिन्न अवतारोंकी समीक्षा की गयी है। रुद्रको आलोचनामें उनके स्वरूप और ब्रह्महत्या आदि कार्योंकी समीक्षा आयी है।
चतुर्थ अविरतसम्यग्दष्टि गणस्थानका स्वरूप बतलाते हुए सात तत्वों का कथन किया गया है। पांचवें गुणस्थानका स्वरूप २५० गाथाओंके द्वारा बहुत विस्तारसे बतलाया है । इसमें अण व्रत, गुणवस, और शिक्षाव्रतोंके साथ अष्टमूलगुणोंका भी उल्लेख आया है। चार प्रकारके ध्यान, देवपूजा, स्वाध्याय, संयम, तप, दान, आदि श्रावकाचारका भी निरूपण आया है। अभिषेकके समय यम, वरुण, कुवेर, ईशान आदिके आह्वानपूर्वक पञ्चामृत-अभिषेक करनेका विधान किया है ।
षष्ठ व सप्तम गुणस्थानके स्वरूपकथनमें पिण्डस्थ, पदस्थ रूपस्थ, और रूपातीत ध्यानोंका कथन आया है। शेष गणस्थानोंका सामान्यतया स्वरूपविवेचन हुआ है। गुणस्थानोंके स्वरूपकथनमें देवसेनने पंचसंग्रहप्राकृससे अनेक गाथाएँ ज्यों-को-त्यों रूपमें ग्रहण की हैं। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने गोम्मटसारमें पंचसंग्रहकी अनेक गाथाएं ग्रहण की हैं । यहाँ तुलनाके लिए कतिपय सामान गाथाएं दी जाती हैं
मिच्छो सासण मिस्सो अविरयसम्मो य देसविरदो य । विरओ पमत्त इयरो अपुब्ब अणियट्टि सुहमो य ।। उवसंत खीणमोहे सजोइकेवलिजिणो अजोगी य । ए चउदस गुणठाणा कमेण सिद्धा य गायव्या ।। णो इंदिएस बिरओ पो जीवे थावरे तसे वा पि ।
जो सहइ जिणुतं अविरइसम्मो ति णायथ्यो ।' इस प्रकार अनेक गाथाएँ पंचसंग्रहमें प्राप्त होती हैं । इतना ही नहीं, भाव१. पंचसंग्रह, गापा १०, ११, २६१ ।
श्रुतघर धोर सारस्वताचार्य : ३७५