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कउलायरिओ अक्खइ अस्थि ण जीवो हु कस्स तं पावं ।
पुण्णं वा कस्स भवे को गच्छद गरय-सगं' वा ।। यह कोलिकमत शैवतन्त्रका एकमत है। एक प्रकारसे यह वामानों है । है। मांस, मदिराके सेवनके साथ स्वोरमण एवं स्वयं शिव-पार्वतीका प्रतिरूपक अपनेको मानना आदि इसके सिद्धान्त हैं। यहाँ हमें प्रन्यकारका भ्रम प्रतीत होता है । कोलिक और चार्वाक ये दोनों मत स्वतन्त्र हैं। दोनोंमें समता इतनी है कि पुण्य-पाप, परलोक आदिकी स्थिति दोनोंमें तुत्य है। कोलिक मतके ग्रन्योंमें वामाचारको भी पुण्यरूप कहा गया है तथा वाममार्गीधर्माचरणसे स्वर्गादिक सुखोंकी उपलब्धि भी मानी गयी है। शिव और पार्वती रूप कृत्यअकृत्योंका संकल्प कर लेने पर कहीं कोई बाधा नहीं आती और स्वार्गादिक प्राप्त हो जाते हैं।
चार्वाकमतके पश्चात् सांख्यमतकी समीक्षा को गयी है । बताया है कि जीव सदा अकर्ता है और पुष्य-पापका भोक्ता भी नहीं है। ऐसा लोक में प्रकट करके बहन और पुत्रीको भी अंगीकार किया गया है । यथा
जीवो सयः सकत्ता सागस हो गुमरालस्म । इय पयडिऊण लोए गहिया वहिणी सध्या वि।।
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घूयमायरिवहिणि अण्णावि पुत्तस्थिणि । आयति य पासवयणपयडे वि विप्पें । जह रमियकामासरेण वेयगव्वे उप्पण्णदप्प ॥ बंभणि-छिपिणि-डोंवि-नडिय-वडि-रज्जइ-चम्मारि।
कवले समइ समागमइ तह मुत्ति य परणारि ।। अर्थात् पुत्री, माता, वहन या अन्य कोई भी नारी पुत्रोत्पत्तिको भाबनासे कामवचन प्रकट करे, तो कामातुर हो वेदज्ञानी ब्राह्मणको उसका उपभोग करना चाहिये। लेखकने बतलाया है कि कपिलदर्शनमें प्रतिपादित ब्राह्मणी, डोम्बी, नटी, घोबिन, चमारिन आदि परनारियोंके साथ भोग करना उचित है।
स्मृतिकारोंके इस कथनका आशय लेकर कि जो पुरुष स्वयं आगता नारीका भोग नहीं करता उसे ब्रह्महत्याका पाप लगता है; को लक्ष्यमें रखकर १. भावसंग्रह, गाथा १७२ । २. वही, गाया १७९ । ३. मावसंग्रह, गाथा १८५ । ३७४ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा