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प्रथम अध्याय में सम्यग्दर्शनका निरूपण है । सम्यग्दर्शनका लक्षण समन्तभद्रके 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार के आधारपर रचा गया है। यथा
सदृष्टिज्ञानसद्वृत्तरत्नत्रितयनायकेः । कथितः परमो धर्मः धद्धानं शुद्धवृत्तीनां
कर्मकक्षक्षयानलः | १|३३| देवतागमलिङ्गिनाम् । मोठया दिदोषनिर्मुकं दृष्टि दृष्टिविदो विदुः || १९३४
'करें
तुलना
सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः ।
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श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥
मिथ्यादृष्टियों का वर्णन करते हुए गोपूजा, पोपलवृक्षपूजा एवं गतानुगतिकसे आये हुए लोकविश्वासोंका इसमें निर्देश है । इस ग्रन्थमें भाव - संग्रहके अनुसार ही सम्यग्दर्शनके संवेग, निर्वेद आदि आठ गुणोंका कथन किया है तथा आठोके लक्षण भी दिये गये हैं । मुनियोंमें दोष देखनेवालोंकी भी निन्दा की गयी है । इन विशेष बातोंके अतिरिक्त सम्यग्दर्शन के २५ दोषों और ८ अंगों का भी कथन है ।
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द्वितीय अध्याय में सम्यग्ज्ञानका वर्णन है । इसके आरम्भ में ही ज्ञानको प्रमाण न मानने और इन्द्रिय या सन्निकर्ष आदिको प्रमाण माननेवाले नैयायिकवैशेषिक आदि मतों की समीक्षा की है । मतिज्ञान के भेद-प्रभेदों का वर्णन करते हुए बुद्धि, ऋद्धिके भेदोंका भी स्वरूप बतलाया गया है। श्रुतज्ञानके प्रकरण में द्वादशाङ्गके भेद-प्रभेदों एवं अंगबाह्यश्रुतके भेदोंका स्वरूप वर्णित है । इस सन्दर्भ में धवला और जयघवला में बतलाये हुए स्वरूपसे भी कहीं कुछ अन्तर है | उदाहरणार्थं दशवेकालिक के स्वरूपको लिया जा सकता है। बताया हैद्रुम, पुष्पित आदि दश अधिकारोंके द्वारा जिसमें साधुओं के आचरणका वर्णन हो वह दशवेकालिक है । ये दश अधिकार श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य दश - वैकालिक के ही दश अध्याय है । गोम्मटसार जीवकाण्डके समान श्रुतज्ञानके पर्याय, पर्याय - समास, अक्षर, अक्षर-समास आदि २० भेदोंका भी कथन किया गया है । शेष ज्ञानोंका वर्णन तो सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवात्तिक जैसा है ।
तृतीय अध्यायमें चारित्रका वर्णन है । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचयं
१. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पद्म ३२४ ।
४३६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा