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भेद बतलाकर बहुत ही संक्षेप में किन्तु सरल और स्पष्ट विवेचन किया है । गाथा ३५ में व्रत, समिति, गुसि, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषह्जय और चारित्रको भावसंवरके भेद बतलाया है । तस्वार्थ सूत्रमें व्रतोंको तो पुष्यास्रव माना है और शेषको संवरका हेतु बतलाया है | व्रतोंमें निवृत्तिका अंश भी होता है । अतएव यहां व्रतोंको संवरका हेतु बतलाया गया है ।
तृतीय अधिकार में द्विविध मोक्षमार्गका कथन करते हुए सम्यग्दर्शन सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्रका स्वरूप बतलाकर ध्यानाभ्यास करनेपर जोर दिया है, क्योंकि ध्यानके बिना मोक्षकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। ध्यानके भेद और स्वरूपादिकका कथन तो इस ग्रन्थ में नहीं आया है, किन्तु पंचपरमेष्ठियों के वाचक मन्त्रोंको जपने तथा उनका ध्यान करनेकी प्रेरणा की है और इसलिये अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पंचपरमेष्ठियों का स्वरूप एकएक गाथाके द्वारा बतलाया गया है । अन्तमें तप, श्रुत और व्रतोंका धारी आत्मा ही ध्यान करनेमें समर्थ है, का कथन किया है। इस प्रकार ग्रन्थकारने इसमें बहुत संक्षेपमें जैनदर्शनके प्रमुख तत्त्वोंका कथन किया है ।
५८वीं गाथा में ग्रन्थकारने अपने नामका निर्देश करते हुए लघुता प्रकट की हैंदव्वसंग मिणं सुणिणाहा दोस-संचय चुदा सुद- पुण्णा । सोधयं तु तणु-सुत्तधरेण णेमिचंदमुनिणा भणिय' जं ॥
यह द्रव्यसंग्रह अल्पसूत्रधारी नेमिचन्द्र मुनिके द्वारा रचा गया है । गुणोंके भण्डार, श्रुतज्ञानी श्रमणनायक इसे निर्दोष बना लेवें ।
अन्य चर्चित सारस्वताचार्य
पूर्वोक्त वर्णित प्रमुख सारस्वताचार्योंके अतिरिक्त ऐसे भी कई अन्य सारस्वताचार्य मिलते हैं, जिनकी स्वतन्त्र रचनाएं उपलब्ध नहीं हैं अथवा जिनके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में स्वतन्त्ररूपसे जानकारी प्राप्त नहीं होती है । किन्तु अपने समय में असाधारण व्यक्तित्व होनेके कारण इनके निर्देश हरिवंशपुराण, आदिपुराण अथवा अन्य ग्रन्थों में प्राप्त होते है । अतएव यहाँ ऐसे आचार्योंपर भी कुछ प्रकाश डाला जाता है ।
आचार्य सिंहनन्दि
गंग- राजवंशकी स्थापनामें सहायता देनेवाले आचार्यं सिंहनन्दि विशेष उल्लेखनीय हैं। गंगवंशका सम्बन्ध प्राचीन इक्ष्वाकुवंशसे माना जाता है। मूलतः
१. बृहद्वव्यसंग्रह, गाथा ५८ ।
४४४ : सीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा