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इस प्रकार अभिलेखाय प्रमाणके आधारपर धरसेनका समय ई. सन्की प्रथम शताब्दी आता है । आचार्य धरसेन अपने समयके श्रुतज्ञ विद्वान् थे। प्राकृत पट्टावली और इन्द्रनन्दिके श्रलावतारके आधारपर भी धरसेनका समय वोर नि० सं०६०० अर्थात् ई० सन् ७३के लगभग आता है । धरसेनका पाण्डि
आचार्य धरसेन सिद्धान्तशास्त्र के ज्ञाता थे। उनके चरणों में बैठकर आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलिने कर्मशास्त्र और सिद्धान्तका अध्ययन किया। वे सफल शिक्षक और आचार्य थे । आचार्य बीरसेनने धरसेनकी विद्वत्ता और पाण्डित्यका वर्णन करते हुए बताया है कि वे परवादिरूपों हाथोके समूहके मदका नाश करने के लिए श्रेष्ठ सिंहले समान है, सिद्धान्तरूपी श्रुतका पूर्णतया मन्थन करने वाले हैं। अतएव थतके पाण्डित्यके कारण वे महनीय यशके धारो विद्वान हैं। वीरसेनने लिम्बा है
“पसियउ मह धरसेणो पर-वाइ-गओह-दाण-वरसीहो
सिद्ध तामिय-सायर-तरंग-संघाय-धोय-मणी' । स्पष्ट है कि धरसेन आचार्य सिद्धान्तविषयक प्रौढ़ विद्वान थे। श्रुतकी नष्ट होती हई परम्पराको रक्षा इन्हींके द्वारा हुई है। इनके विषयमें 'षट्खण्डागम' टोकासे जो तथ्य उपलब्ध होते हैं, उनसे ऐसा ज्ञात होता है कि घरसेनाचार्य मन्त्र-तन्त्रके भा ज्ञाता थे। इनका 'योनिप्राभुत' नामक मन्त्रशास्त्रसंबन्धी कोई ग्रन्थ अवश्य रहा है। इस योनिप्राभतका निर्देश 'धवलाटोका में भी प्राप्त होता है''जोणिपाहुडे गिद-मंत-तंत-सत्तोआ पोग्गलाणुभागो त्ति धेन-तच्या' 17
अतएव 'बृहटिप्पणिका' के साथ धनलाटोकामें भी 'योनिप्राभूत'का निर्देश उपलब्ध होता है । इस आलोकमें धरसेनरचित योनिप्रामृत' प्रथपर अविश्वास नहीं किया जा सकता है । धवलाटोकामें बताया गया है कि पुष्पदन्त और भूतवलिको बुद्धि-परीक्षाके हेतु धरसेनाचार्य ने दो मन्त्र दिये थे। उनमें एक मन्त्र अधिक अक्षर वाला था और दसरा हीनाक्ष र था। गुरुने दो दिन के उपवासके पश्चात उन मन्त्रोंको सिद्ध करने का आदेश दिया। शिष्य मन्त्रसाधनामें संलग्न हो गये । जब मन्त्रके प्रभावसे उनको अधिष्ठात्री देवियाँ उपस्थित हुई तो एक देवीके दौत बाहर निकले हुए थे और दूसरी कानी थी। देवता विकृताङ्ग नहीं १. धवलाटीकासमन्बित षट्खण्डागम, प्रथम जिल्द, १०६। २. धवलाटीका, जिल्द १, प्रस्तावना, पृ० ३०, ४८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आमार्य-परम्परा