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प्रवचनप्रवेशमें प्रमाण, नय और निक्षेपके कयनको प्रतिज्ञा, अर्थ और आलोकको ज्ञानकारणताका खण्डन, अन्धकारको ज्ञानका विषय होनेसे आवरणरूपताका अभाव, तज्जन्म, ताद्रूप्य और तदध्यवसायका प्रमाण में अत्रयोंजकत्व, श्रुतके सकला देश और विकलादेशरूप उपयोग, "स्यादस्त्येव जीवः " इस वाक्यको विकलादेशता, "स्याज्जीव एव" इस वाक्यको सकलादेशता, शब्दकी विवक्षासे भिन्न वास्तविक अर्थकी वाचकता, नैगमादि सात नयों में से आदिके चार नयोंका अर्थनयस्व, शेष तीन नयोंका शब्दनयत्व, नामादि चार निक्षेपोंके लक्षण, अप्रस्तुतनिराकरण तथा प्रस्तुत अर्थका निरूपणरूप निक्षेपका फल इत्यादि प्रवचनके अधिगमोपायभूत प्रमाण, नय और निक्षेपका निरूपण किया गया है। शास्त्रज्ञानका सादित्व अनादित्व सिद्ध करते हुए लिखा है ।
यथा
श्रुतादर्थमनेकान्तमधिगम्याभिसन्धिभिः ।
परीक्ष्य तांस्तान् तद्धर्माननेकान् व्यावहारिकान् ॥ नयानुगतनिक्षेपैरुपायैर्भेदवेदने । विरचय्यार्थवाक्प्रत्ययात्ममेदान् श्रुतापितान् ॥ अनुयुज्यानुयोगेश्च निर्देशादिभिदां गतः । द्रव्याणि जीवादीन्यात्मा विवृद्धाभिनिवेशनः || जीवस्थानगुणस्थानमागंणास्थान तत्त्ववित् । तपोनिर्जीर्णकर्माऽयं विमुक्तः सुखमृच्छति' ||
इस प्रकार इसमें प्रमाण, नय और निक्षेपका निरूपण किया है । २. न्यायविनिश्चय सवृत्ति
विनिश्चयान्त ग्रन्थ लिखनेको प्रणाली प्राचीन रही है । धर्मकीर्तिका भी प्रमाण विनिश्चय नामक ग्रन्थ मिलता है । 'तिलोयपण्णत्ति' में भी 'लोकविनिश्चय' नामक ग्रन्थको सूचना है। न्यायविनिश्चय में प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन ये तीन प्रस्ताव हैं । प्रथम प्रस्ताव में १६९३, द्वितीयमें २१६३ और तृतीय में ९४, कुल ४८० कारिकाएं हैं। सिद्धसेन के न्यायाचतारमें भी प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द इन तीन प्रमाणोंका विवेचन किया गया है ।
प्रथम प्रत्यक्ष प्रस्ताव में प्रत्यक्ष प्रमाणपर विस्तारपूर्वक विचार किया गया है । इसमें इन्द्रियप्रत्यक्षका लक्षण, प्रमाणसम्प्लवसुचन, चक्षुरादि
१. लघीयस्त्रय, कारिका ७३–७६ ।
२. वादिराजसूरिकी टीकासहित भारतीय ज्ञानपीठ काशी द्वारा प्रकाशित है ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ३०९