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श्वेताम्बर परम्परामें आयभक्षुको आयमंगु नामसे उल्लिखित किया है। भंगु
और मंक्षु एकार्थक शब्द हैं। अतः ये दोनों एक ही व्यक्तिके लिए प्रयुक्त हैं। 'धवला टीकामें इन दोनोंको महाश्रमण और महावामक लिखा है
"कम्मट्टिदि त्ति अणियोगद्दारे हि भण्णमाणे वे उवएसा होति । जहण्णमुक्कस्सहिदीणे पमाणपरूवणा कढिदिपरूवणं ति जागहत्यि-खमासमणा भणति । अजमखु-बमासमणा पुण कम्मट्टिदिपरूवेणे ति भणंति । एवं दोहि उवएसेहि कम्मट्रिदिपरूषणा कायस्वा ।" "एत्थ दुवे उवएसा....""महावाचयाणमज्बमखुखवणाणमुवएसेण लोगपूरिदे आसगसमाणं णामा-गोद-वेदणीयाणे ठिविसंतकम्मं ठवेदि । महावाचयागंणागहत्थि-खवणाणमुवएसेण लोगे पूरिदे णामा-गोदवेदणीयाण ट्ठिविसंतकम्म अंतोमुहत्तपमाणं होदि ।"
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि आर्यमंक्षु और नागहस्ति क्षमाश्रमण और महावापक पदोंसे विभूषित थे। इससे इन दोनोंको सिद्धान्तविषयक विद्वत्ताका पता चलता है। जयपवलामें आर्यमा और नागहस्तिका उल्लेख करते हुए इन दोनोंको आरातीय परम्पराका अभिज्ञ माना है । लिखा है____ "एदम्हादो विललगिरिमत्ययस्थवड्वमाणदिवायरादो विणिग्गमिय गोदमलोहज-जंबुसामियादि-आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहराइरियं पायिय गाहासस्वेण परिणमिय अज्जमखु-णागहत्थोहितो जइवसहायरियमुवामय चुण्णिसुत्तायारेण परिणदिव्यज्झुणिकिरणादो णव्वदे ।"३
अर्थात् विपुलाचलके ऊपर स्थित भगवान महावीररूपी दिवाकरसे निकलकर गौतम, लोहार्य, जम्बूस्वामी आदि आचार्यपरम्परासे आकर गुणधराचार्यको प्राप्त होकर वहाँ गाथारूपसे परिणमन करके पुनः आर्यमंक्षु और नागहस्ति आचार्यके द्वारा आर्य यतिवषभको प्राप्त होकर णिसूत्ररूपसे परिणत हुई दिव्यध्वनि किरणरूपसे अज्ञान अन्धकारको नष्ट करती है। इससे स्पष्ट है कि ये दोनों आचार्य अपने समयके कर्मसिद्धान्तके महान वेत्ता और आगमके पारगामो थे । जयधवलाकार आचार्य वीरसेनने टीकाके प्रारंभमें उक्त दोनों आचार्योंकी महत्ता प्रदर्शित की है। धवला और जयधवला टीकाओंके आधार पर इन दोनों
आचार्योको सिद्धान्तका मर्मज्ञ और व्याख्याता माना जा सकता है। वीरसेनने लिखा है
गुणहर-वयण-विणिग्गय-गाहाणत्योऽवहारियो सब्यो।
जेणज्जमखुणा सो सणागहस्थी वरं देऊ ।।७।। १. षट्वण्डागम १ प्र. पृ० ५७, पुरातन जैन बामय-सूची पृ० ३० पर उद्धत । २. कसायपाहुए, पश्चम भाग, पृष्ठ ३८८ । ७२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परमरा