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बहुत्वविधानमें कर्मों के अल्पबहुत्वका निरूपण किया है। इस प्रकार वेदनाखण्डमें कुल १,४४९ सूत्र हैं। ५. वर्ग शाखण्ड
इसमें स्पर्श, कर्म और प्रकृति नामक तीन अनुयोगद्वारोंका प्रतिपादन किया गया है। स्पर्श-अनुयोगद्वारमें स्पर्शनिक्षेप, स्पर्शनयविभाषणता, स्पर्शनामविधान और स्पर्शद्रव्यांववान आदि १६ आधेकास स्पशका विचार किया गया है। कर्म-अनुयोगद्वारमें नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्वघ्यकर्म, प्रयोगकर्म, सामावदानकर्म, अधःकरणकम, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म, क्रियाकर्म और भावकर्मका प्ररूपण है। प्रकृति-अनुयोगद्वारमें प्रकृतिनिक्षेप आदि १६ अनुयोगद्वारोंका विवेचन है । इन तीनों अनुयोगद्वारों में क्रमशः ६३, ३१, और १४२ सूत्र हैं ।
बन्धनके चार भेद हैं-१. बन्ध, २. बन्धक, ३. बन्धनीय और ४. बन्धविधान । बन्ध और बन्धनीयका विवेचन ७२७ सूत्रोंमें किया गया है । बन्धप्रकरण ६४ सूत्रोंमें समाप्त हुआ है। बन्धनीयका स्वरूप बतलाते हए कहा है कि विपाक या अनुभव करनेवाले पुद्गल-स्वन्ध हो बन्धनीय होते हैं और वे वर्गणारूप है। ६. महावन्ध ___ बन्धनीय अधिकारकी समाप्तिके पश्चात प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका विवेचन छठे वण्ड में अनेक अनुयोगद्वारोंमें विस्तारपूर्वक किया गया है। प्रकृतिका शब्दार्थ स्वभाव है । यथा-चीनीको प्रकृति मघर और नीमकी प्रकृति कटुक होती है। इसी प्रकार आत्माके साथ सम्बद्ध हुए कर्मपरमाणुओंमें आत्माके ज्ञान-दर्शनादि गुणोंको आवृत करने या सुस्वादि गुणोंके घात करनेका जो स्वभाव पड़ता है उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं। वे आये हए कर्मपरमाणु जितने समयतक आत्माके साथ बंधे रहते हैं उतने कालकी मर्यादाको स्थितिबन्ध कहते हैं। उन कर्मपरमाणओंमें फलप्रदान करनेका जो सामथ्र्य होता है उसे अनुभागबन्ध कहते हैं। आत्माके साथ बंधनेवाले कर्मपरमाणुओंके ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूपसे और उनकी उत्तरप्रकृत्तियोंके रूपसे जो बॅटवारा होता है उसे प्रदेशबन्ध कहते हैं। इस षष्ठ खण्डमें इन चारों बन्धोंका प्रकृतिसमुत्कीर्तन, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध आदि २४ अनुयोगद्वारों द्वारा प्ररूपण किया गया है । आचार्य आयमंझ और नागहस्ति ये दोनों आचार्य दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों परम्पराओंमें प्रतिष्ठित हैं।
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : ७१