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मुल्तारका अभिमत है-.-"यह कृति (योगसार प्राभत्) निश्चितरूपसे अमिगति प्रथमकी कृति है, जिसका प्रमाण अमितगतिके साथ निःसंङ्गात्मा विशेषणका प्रयोग है, जिसे ग्रन्थकारने स्वयं अपने लिये प्रयुक्त किया है ।.....। यह विशेषण अमित्तगति द्वितीयके लिये कहीं भी प्रयुक्त नहीं हुआ हैबल्कि स्वयं अमितगति द्वितीयने इस विशेषणको - 'त्यक्त-निःशेषसगः' रूपमें अमितगति प्रथमके लिये प्रयुरः “कर है। जैसा सु
इ को प्रशस्तिो निम्नपद्यसे जाना जाता है और जिससे उत्तः निश्चय एवं विणयको भरपूर पुष्टि होती है
आशोविध्वस्त-कन्तोविपुलशमभृतः श्रीमतः कान्तकीर्तेः सूरेातस्य पार श्रुतसलिलनिधेर्देवसेनस्य शिष्यः । विज्ञाताशेषशास्त्रो व्रतसमितिभृतामग्रणीरस्तकोपः
श्रीमान्मान्या मुनीनाममितगतियतिस्त्यक्तनिःशेषसंगः । इस पद्यमें अमितगति प्रथमके गुरु देवसेनका नामोल्लेख करते हुए उन्हें विध्वस्तकामदेव, दिपुलशमभृत, कान्तकोति और श्रुतसमुद्रका परगामी आचार्य लिखा है तथा उनके शिष्य अमितगति योगीको अशेषशास्त्रोंका ज्ञाता, महाव्रत-समितियोके धारकोमें अग्रणी, क्रोधरहित, मुनिमान्य और समस्त वाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्यागी सूचित किया है। पिछला विशेषण सर्वोपरि मुख्य जान पड़ता है। इसीसे अमितगतिने उसे निःसंङ्गात्माके रूपमें अपने लिये प्रयुक्त किया है।"
इस प्रकार द्वितीय अमितगतिसे अमितगति प्रथमका 'निःसङ्गात्मा' विशेषण द्वारा पार्थक्य सिद्ध है। इसके अतिरिक्त अमितगति द्वितीयने सुभाषितरत्नसन्दोह, धर्मपरीक्षा आदि ग्रन्थोंमें अमिप्तगति प्रथमके महान गुणोंकी स्तुति की है। अत: अमितगति प्रथम उनसे पूर्ववर्ती हैं। स्थितिकाल
अमितगति द्वितीयने सुभाषितरत्नसन्दोहको वि० सं० १०५० में पोष शुक्ला पञ्चमीके दिन समाप्त किया है। इसके पश्चात् धर्मपरीक्षाको वि० सं० १०७० में और पञ्चसंग्रहको वि० सं०१०७३ में पूरा किया हैं । असएव अमितगति द्वितीयका समय वि० सं० १०५० है । इनके द्वारा उल्लिखित अमितगति प्रथम इनसे दो पोढी पूर्व होनेसे उनका समय वि० सं० १००० निश्चित होता है।
१. योगसारप्राभूत, प्रस्तावना, पृ० २० । ३८४ : तीकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा