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इस ग्रन्थमें आये हुए गद्य-भाग धवलाको गद्यशैलीके तुल्य हैं । गद्यांशोंसे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि ये गद्यांश धवलासे तिलोयपण्णत्ती में आये हैं; बल्कि तिलोयपण्णन्ती'से ही घयलामें पहुँचे हैं___ "एसा तप्पाओगासंखेज्जरूवाहियजंबूदीवछेदणयसहिददीबसायररूपमेत्तरज्जुच्छेदपमाणपरिक्खाविहो ण अण्ण आहरिओबएसपरंपराणुसारिणी केवलं तु तिलोयपण्णतिसुत्ताणुसारिजोदिसियदेवभागहारपदुप्पाइदसुत्तावलंबिजुत्तबलेण पयदगच्छसाहट्ठमम्हेहि परूविदा ।" __ या गद्यांश धवला स्पर्शानयोगद्गार पृ० १५७ पर भी उद्धृत है। उसमें 'एसा के स्थानपर 'अम्हेहि रूप पाया जाता है 1 उपयुक्त गद्य भागमें एक राजुके जितने अर्द्धच्छेद बतलाये हैं उनकी समता तिलोयपण्णत्तो'के अर्द्धच्छेदोंसे नहीं होती । इसीपर मुख्तार साहबका अनुमान है कि धवलासे यह गद्यांश "तिलोयपण्णत्तो' में लिया गया है, पर हमें ऐसा प्रतीत नहीं होता । हमारा अनुमान है कि धवलाकारके समक्ष यतिवृषभको 'तिलोयपण्णत्ती' रही है, जिसके आधारपर यत्किञ्चित् परिवर्तनके साथ 'तिलोयपण्णत्तो'का प्रस्तुत संस्करण निबद्ध किया गया है। पतिवृषभको अन्य रचनाएँ
पं० होरालालजी शास्त्रोके' मतानुसार आचार्य यतिवृषभकी एक अन्य रचना 'कम्मपडि' चूणि भी है । यतिवृषभके नामसे करणसूत्रोंका निर्देश भी प्राप्त होता है, पर आज इन करणसूत्रोंका संकलित रूप प्राप्त नहीं है। उच्चारणाचार्य ___ उच्चारणाचार्यका निर्देश कसायपाहुडको जयधवला-टोकामें अनेक स्थानों पर आया है । मौखिकरूपसे चली आयी श्रुतपरम्पराको शुद्ध उच्चरित रूप बनाये रखनेके लिए उच्चारणको शुद्धतापर विशेष जोर दिया जाने लगा। बहुत दिनों तक उच्चारणाचार्योंको यह परम्परा मौखिक रूपमें चलती रही। गाथासूत्रोंकी रचना करके उनके रचयिता आचार्य अपने सुयोग्य शिष्योंको उन सूत्रोंके द्वारा सूचित अर्थ के उच्चारण करनेकी विधि और व्याख्यान करनेका प्रकार बतला देते थे, और वे लोग जिज्ञासु जनोंको शुरु-प्रतिपादित विधिसे उन गाथासूत्रोंका उच्चारण और व्याख्यान किया करते थे। इस प्रकारके गाथासूत्रोंके
१. कसायपाहुडसुत्त चूणिसूत्रसमन्वित, बीरशासन संघ कलकसा, १९५५, प्रस्ता
वना, पु० ३८
९२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा