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उच्चारण व व्याख्यान करनेवाले आचार्योंको उच्चारणाचार्य व व्याख्यानाचार्य कहा जाने लगा ।
जवला अनेक स्थानों पर उच्चारणाचार्य नामके व्यक्ति विशेषका उल्लेख आया है । इस उल्लेखके अध्ययनसे अवगत होता है कि उच्चारणाचार्यने यतिवृषभ द्वारा रचित चूर्णिसूत्रों की विशेष उच्चारणविधि और व्याख्यानका प्रवर्तन किया है। लिखा है - "संपहि मदबुद्धिजणागुग्गहट्टमुच्चारण : इरियमुह्विणिग्गयमूलायडिविवरणं भणिस्सामा ।"" अर्थात् मूलप्रकृति विभक्तिके विषयमें आठ अनुयोगद्वार हैं। आचार्य यतिवृषभने सुगम होने के कारण आठ अर्थाधिकारोंका विवरण नहीं किया, पर मंदबुद्धिजनों के उपकार हेतु उच्चारणाचार्यंके मुख से
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हुए मूलते हैं, सरकीर्तना, सादि विभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति, अध्रुव विभक्ति, एकजीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्प-बहुत्वका निर्देश किया जायेगा ।
स्पष्ट है कि यतिदृषभाचार्यने अपने चूर्णिसूत्रों में जिन सुगम तथ्योंकी विवरणवृत्ति नहीं लिखी है, उनका स्पष्टीकरण उच्चारणाचार्यने किया है ।
उच्चारणाचार्य और यतिवृषभाचार्य विषय निरूपण में भी यत्र-तत्र अन्तर दिखलायी पड़ता है । इस अन्तरका समाधान वीरसेन स्वामीने विभिन्न नयोंकी अपेक्षा किया है। बताया है - "उच्चारणाइरिएहि मूलपयडिविहतीए अत्याहियारा जइवसहाइरियेग अठ्ठेब अत्याहियारा परूविदा । कथमेदेसि दोन्हं वक्खाणाणं ण विरोहो ? ण, पज्जवद्विय-दब्बुट्टियणयावलंबनाए विरोहाभावादो ।" अर्थात् उच्चारणाचार्यने मूलप्रकृतिविभक्तिके विषयमें सबह अर्थाधिकार कहे हैं, और यतिवृषभाचार्यने आठ हो अर्थाधिकार बतलाये हैं । अतएव इन दोनों व्याख्यानों में विरोध क्यों नहीं आता ?
पर्यायार्थिकनय और द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन करने पर उन दोनोंमें कोई विरोध नहीं है । यतिवृषभका कथन द्रव्याधिक नयकी अपेक्षासे है और उच्चारणाचार्यका पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे ।
इसी प्रकार यतिवृषभाचार्यने ग्यारह अनुयोगद्वार और उच्चारणाचार्यने चौबीस अनुयोगद्वार बतलाकर मोहनीयविभक्तिवाले जीवों का विवेचन किया है । इस सन्दर्भ में भी यतिवृषभाचार्य और उच्चारणाचार्य के कथनमें कोई
१. जयघवलासहित कसायपाहुड, भाग २, पृ० २३ । २. जयषवलासहित कसायपाहुड, भाग २, पृ० २२ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्थ : ९३