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इस ग्रन्थमें भूगोल और खगोलका विस्तृत निरूपण है। प्रथम महाधिकारमें २८३ गाथाएँ हैं और तीन गद्य-भाग हैं। इस अधिकारमें १८ प्रकारकी महाभाषाएं और ७०० प्रकारको क्षुद्र भाषाएँ उल्लिखित हैं। राजगृहके विपूल, ऋषिक वैभार, हिनाभर पाणड नागके 'कोलों का उल्लेख है । दृष्टिबादसूत्रके आधारपर त्रिलोककी मोटाई, चौड़ाई और ऊँचाईका निरूपण किया है । - दूसरे महाधिकारमें ३६७ गाथाएँ हैं, जिनमें नरकलोकके स्वरूपका वर्णन है। तीसरे महाधिकारमें २४३ गाथाएं हैं। इनमें भवनवासी देवोंके प्रासादोंमें जन्मशाला, अभिषेकशाला, भषणशाला, मथुनशाला, औषधशाला-परिचर्यागृह और मन्त्रशाला आदि शालाओं तथा सामान्यगृह, गभंगृह, कदलीगृह, चित्रगह, आसनगृह, नादगृह एवं लतागृह आदिका वर्णन है । अश्वत्य, सप्तपर्ण, शाल्मलि, जम्बू, वेतस, कदम्ब, प्रियंगु, शिरीष, पलाश और राजद्रुम नामके दश चत्यवृक्षोंका उल्लेख है। चतुर्थ महाधिकारमें २९६१ गाथाएं हैं । इसमें मनुष्यलोकका वर्णन करते हुए विजयार्द्धके उत्तर और दक्षिण अवस्थित नगरियोंका उल्लेख है । आठ मंगलद्रव्योंमें भृगार, कलश, दपंण, व्यजन, ध्वजा, छत्र, चमर और सुप्रतिष्ठके नाम आये हैं । भोग-भूमिमें स्थित दश कल्पवृक्ष, नरनारियोंके आभूषण, सीथंकरोंकी जन्मभूमि, नक्षत्र आदिका निर्देश किया गया है। बताया गया है कि मि, मल्लि, महावीर, वासुपूज्य और पार्श्वनाथ कुमारावस्था और शेष तीर्थकर राज्यके अन्तमें दीक्षित हुए हैं । समवशरणका ३० अधिकारोंमें विस्तृत वर्णन है । पांचवें महाधिकारमें ३२१ गाथाएँ हैं । इसमें गद्य-भाग भी है । जम्बूद्वीप, लवण समुद्र, धातकोखण्ड, कालोद समुद्र, पुष्करवर द्वीप बादिका विस्तार सहित वर्णन है । छठे महाधिकारमें १०३ गाथाएं हैं, जिनमें १७ अन्तराधिकारोंका समावेश है। इनमें व्यन्तरोंके निवास क्षेत्र, उनके अधिकार क्षेत्र, उनके भेद, चिह्न, उत्सेध, अबधिज्ञान आदिका वर्णन है। सात महाधिकारमें ६१९ गाथाएँ हैं, जिनमें ज्योतिषी देवोंका वर्णन है। आठवें महाधिकारमें ७०३ गाथाएं हैं, जिनमें वैमानिक देवोंके निवास स्थान, आयु, परिवार, शरीर, सुखभोग आदिका विवेचन है। नवम महाधिकारमें सिद्धोंके क्षेत्र, उनकी संख्या, अवगाहना और सुखका प्ररूपण किया गया है। मध्यमें सूक्तिगाथाएँ भी प्राप्त होती हैं। यथा
अन्धो णिवडई कूवे बहिरो ण सुणेदि साधु-उवदेसं ।
पेच्छंतो णिसुणतो णिरए जं पडइ सं चोज्जं ।। अर्थात् अन्धा व्यक्ति कूपमें गिर सकता है, बधिर साधका उपदेश नहीं सुनता है, तो इसमें आश्चर्यकी बात नहीं। आश्चर्य इस बातका है कि जीव देखता और सुनता हुआ नरकमें जा पड़ता है।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ९१