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पूर्वो का ज्ञाता, प्रवचनकर्त्ता एवं दीक्षित शिष्योंके निमित्त सूत्रार्थको विशद करनेवाले ग्रन्थों का ज्ञाता आचार्य होता है । बताया है"सिस्साणुग्गह-कुसलो धम्मुवदेसो य संघ वट्टवल । मज्जादुवदेसो वि य गण-परिखखो मुणेयव्यो । संगह गुग्गह- कुसलो सुत्तत्य-विसारओ पहिय कित्ती । किरिआचरण सुजुत्तो गाहृय आदेउजवयणो य || गंभीरो दुद्धरिसो सूरो धम्मप्पहावणा-सीलो । खिदि-ससि साय-सरसो कमेण तं सो दु संपत्तो ॥
मूलाचारके उक्त उद्धरणसे स्पष्ट है कि आचार्य शिष्योंका अनुग्रह, धर्मोपदेश, संघ-प्रवर्तन, मर्यादोपदेश एवं गणपरिरक्षणका कार्य करते हैं । ये सूत्रार्थ के विद्वान होते हुए उसका विशद विवेचन करनेकी क्षमता रखते हैं । स्वसमय और परसमयके ज्ञाता होनेके कारण आचार्यकी गणना श्रुत विशेषज्ञों में की जाती है । परम्परासे प्राप्त सूत्रोंके अर्थ की यथार्थ जानकारी आचार्यको रहती है ।
मूलाराधनामें आचार्यके स्वरूपका प्रतिपादन करते हुए बताया है कि जो पाँच प्रकारके आचारका अतिचाररहित पालन करता है और शिष्योंको आचारांगका उपदेश देता है वह आचार्य कहा जाता है। विजयोदयाटी कामें आचार्यशब्दको व्याख्या करते हुए लिखा है--" आयारं पंचविहं पंचप्रकारं आचारं चरदि विनातिचार पति परं वा निरतिचारे पंचविधे आधारे प्रवतंयति । उवदिसदि य आवार उपदिशति च आचारं । एसो आधारखं नाम एप आचारवान्नाम | एतदुक्तं भवति - आचारांग स्वयं वेत्ति ग्रंथतोऽर्थतश्च, स्वयं पंचविधे आचारे प्रवर्तते प्रवर्तयति । पंचाचारवान् इति । पंचविधे स्वाध्याये वृत्तिर्ज्ञानाचारः । जीवादितत्त्व श्रमानपरिणतिः दर्शनाचारः । हिंसादिनिवृत्तिपरिणतिश्च चारित्राचारः । चतुविधाहारत्यजनं, न्यूनभोजनं वृत्तेः परिसंख्यानं रसानां त्यागः, कायसंतापनं विविक्तवास इत्येवमादिकस्तपः संशित आचारः । स्वशक्त्यनिगूहनं तपसि वोर्याचारः । एते पंचविधा आचाराः ।।" १. मूलाचार, समाचाराधिकार, फलटन- संस्करण, वीर नि० संवत २४८४ गाथा ३५, ३७, ३८ ।
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२. आया पंचविहं चरदि चरावेदि जो शिरदिचारं ।
उवदिसदि य आधारं एसो आयारखं गाम ॥ ४१९ । ।
३. मूलाराघना ४१९ गाथाकी विजयोदया टोका तथा मूलाराघनादर्पण नामक टीकामें उद्धृत श्लोक आचार्यके स्वरूपपर विशेष प्रकाश डालता हूँसदृग्षीवृत्ततपसां सुमुक्षोनिर्मलीकृती । यत्नों विनय आचारो वीर्याद्धेषु तु ।।
श्रुतवर और सारस्वताचार्य : ३